Book Title: Adhunik yoga me jain Siddhanto ki Upayogita
Author(s): Vimal Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ प्रकार अहिंसक के आचार में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की भावना स्वयं आ जाती है। इसीलिए अहिंसा को परम धर्म कहा है तथा विश्व शान्ति का प्रमुख कारण माना है। अपरिग्रहः सर्वोदय एवं समाजवाद : पांच व्रतों में जनहित के लिए अपरिग्रह का बड़ा महत्त्व है। यों तो अहिंसा का पालन करने वाला अपरिग्रह का पालन न्यूनाधिक रूप में करेगा ही तो भी समाज से विषमता दूर करने के लिए जीवन में इसका आचरण अत्यावश्यक है। भगवान् महावीर के समय से जैन धर्म को निग्रन्थ धर्म भी कहा गया है। ग्रन्थ या ग्रन्थि से तात्पर्य परिग्रह से है। अतः परिग्रहत्याग की महिमा होने से इसे निग्रन्थ संज्ञा दी गई। परिग्रह को मूर्छा भी कहते हैं क्योंकि ग्रहण में आसक्ति होती है और वही प्रगाढ़ होकर मूर्छा का रूप धारण कर लेती है। मानव परिग्रह वश निजात्मभाव को भूल जाता है और परभाव में लीन हो जाता है अतः वह स्वार्थवश जन, समाज एवं राष्ट्रहित की चिन्ता नहीं करता वरन् अशान्ति के कारण जुटाता रहता है। संग्रह की भावना वश व्यक्ति झूठ बोलता है, चोरी करता है, कम तोलता है-नापता है, छलकपट करता है, धोखा देता है, षड्यन्त्र रचता है, हत्यायें करता और यहां तक कि वह भीषण युद्ध भी करता है। अत: यदि समाज से इन दोषों को दूर करना है और विषमता हटाकर समता लानी है तो परिग्रह की भावना को संयत करना आवश्यक है, इसे मर्यादित करना होगा। जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति को अपनी आवश्यकता से अधिक द्रव्य, धन-धान्य और भूमि आदि को समाज एवं राष्ट्र को सौंपना होगा। इसी का नाम समाजवाद है और इसी में सर्वोदय निहित है। साम्यवाद के महान् व्याख्याता कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद की परिभाषा करते हुए लिखा है कि मानव समाज में निर्धनता एक अभिशाप है। जब तक समाज में विषमता रहेगी, शांति नहीं होगी और जब तक सम्पत्ति एवं सुख-साधनों का कुछ लोगों के हाथों में एकाधिकार है तब तक विषमता रहेगी अतः विश्व शान्ति एवं सुख समृद्धि के लिए यह एकाधिकार समाप्त होना चाहिए यही तो अपरिग्रह है। परन्तु आज के साम्यवाद में वर्ग-भावना घृणा एवं हिंसा का प्राबल्य है अत: अपरिग्रह सर्वोदयी समाजवाद के अधिक समीप है। इस सर्वोदयी समाजवाद का बड़ा ही विशद विवेचन अपरिग्रह के रूप में जैन धर्म में हुआ है। यह अपरिग्रह नियम आभ्यन्तर और बाह्य रूप से दो प्रकार का है । आभ्यन्तर तो आत्मभावों में त्याग से सम्बन्ध रखता है। और इसी के परिणाम स्वरूप बाह्य परिग्रह का त्याग होता है। आज के सन्दर्भ में बाह्य परिग्रह को समझना आवश्यक है। बाह्य परिग्रह दस प्रकार की होती हैं बाहिर संगा खेत बत्थं धणधण्णकुप्पभंडाणि । दुपय-चउप्पय-जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ॥ अर्थात, क्षेत्र-भूमि, पर्वत आदि, वास्तु-गृह, दुकान आदि, धन-रुपया, सोना, चांदी, रत्न आदि धान्य-गेहूं, चना आदि, कूप्पसभी प्रकार के वस्त्र, भाण्ड-सभी प्रकार के बर्तन, यान-सभी प्रकार के वाहन, शयनासन-सोने और बैठने के सभी उपकरण, द्विपद.... सभी पुत्रादि तथा दास-दासी आदि और चतुष्पद-हाथी-घोड़ा, गाय-भैस आदि पशु । इन सभी परिग्रहों को मर्यादित करना और शेष को समाज हित में त्यागना ही अपरिग्रह है। इससे जाना जा सकता है कि जैन धर्म में कितनी गम्भीरता से सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए अपरिग्रह का विवेचन हुआ। इतनी विस्तृत व्याख्या आज के समाजवादी अर्थशास्त्री भी नहीं कर पाये हैं। और विशेषता यह रही कि लोग इसका आचरण करें अतः अपरिग्रह को धर्म का अंग माना गया और है भी ऐसा ही क्योंकि आत्मस्वभाव या कर्तव्य का नाम ही धर्म है। स्याद्वाद या अनेकान्त : उदार दृष्टिकोण : संसार में हठ या दुराग्रह प्रायः संघर्ष का कारण हो जाता है। क्योंकि इसमें अहंकार और परहीनता का भाव निहित रहता है। इसीलिए वर्ग, समुदाय एवं धर्मों में भेदभाव का विषबीज अंकुरित होता है और वही समाज के विनाश का कारण बनता है। इतिहास में वैदिक-बौद्ध, ईसाई-मुस्लिम, हिन्दू-मुस्लिम एवं शैव-वैष्णव आदि के संघर्ष इसके प्रमाण हैं । इसके विपरीत समाज में सर्वांगीण सामंजस्य के लिए विश्व को भगवान् महावीर की सबसे बड़ी देन है स्याद्वाद या अनेकान्त सिद्धान्त। उन्होंने कहा कि पदार्थों को अनेक दृष्टिकोणों से देखो, वस्तु को एक ही रूप में न देखकर उसे विविध रूपों से निहारो, जैसे-- गाय पशु भी है, प्राणी भी है, चतुष्पद भी है। मनुष्य प्राणी भी है, पिता भी है, पुत्र भी है, चाचा भी है, भतीजा भी है, प्रोफेसर भी है और वकील भी है इत्यादि । एक व्यक्ति ने कहा कि यह वस्तु ऐसी है, महावीर ने कहा स्यात् ऐसी भी है और स्यात् ऐसी भी। इसलिए उन्होंने नय और सप्तभंगियों का निरूपण किया। आत्मा निश्चय नय से शुद्ध चैतन्य रूप है परन्तु व्यवहार से वह प्राणी है, मानव है, गाय है और चींटी भी है। यह सापेक्ष सिद्धान्त है अर्थात् प्रत्येक पदार्थ के रूप का विवेचन ७२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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