Book Title: Adhunik Vigyan aur Jain Manyataye Author(s): Nandlal Jain Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 1
________________ SNo-0-0--0--0--0--0--0-0--0-0-0-0---0--0-0-0-12 0 डा० नन्दलाल जैन [प्राध्यापक, रसायनशास्त्र विभाग, गृह विज्ञान महाविद्यालय, जबलपुर] ज्ञान, योग-सापेक्ष है, विज्ञान प्रयोग-सापेक्ष । वर्तमान युग प्रायोगिक सत्यापन का युग है। जनदर्शन की आत्मज्ञान-सापेक्ष धारणाएँ विज्ञान की कसौटी पर कसने का एक स्वतन्त्र विचार-प्रधान प्रयत्न प्रस्तुत लेख में किया । गया है। 000000000000 ०००००००००००० ta-o------ ------------------------- आधुनिक विज्ञान और जैन मान्यताएँ WILLYS STOK धगम्य हो एवा धर्म और मारपरता पाई जा AN समीचीनता के अवयव : विचार और परीक्षण परीक्षाप्रधानी स्वामी समंतभद्र ने संसार के दुःखों से त्राण देने वाले, उत्तम सुख को धारण कराने वाले तथा कर्म-मल को दूर करने वाले समीचीन साधन को धर्म बतलाया है । यद्यपि सुख-दुःख और कर्म-अकर्म के विषय में बुद्धिजीवियों ने साधारण जन को अपने तर्क-वितर्कों से सदैव भूल-भूलैया में डालने का प्रयास किया है, पर समंतभद्र की। उक्त परिभाषा का विश्लेषण बताता है कि विभिन्न गुणों से युक्त समीचीन माध्यम ही धर्म है । वस्तुतः समीचीन वह है जो मुक्तिप्रवण हो, सहज बोधगम्य हो एवं परीक्षणीय हो । पिछले तीन हजार वर्षों में वैचारिक पद्धति ही समीचीनता को निर्धारित करने का प्रमुख माध्यम रही है। धर्म और जीवन-सम्बन्धी विभिन्न तत्त्वों और प्रक्रियाओं के शास्त्रोक्त विवरणों में पर्याप्त सत्यान्वेषण-क्षमता, सूक्ष्म-दृष्टि एवं गहन-विचारपरता पाई जाती है। वास्तव में पाश्चात्य विचारकों ने जैनों को वर्गीकरण-विशारद एवं तीक्ष्ण बौद्धिक माना है। वैचारिक पद्धति में एक ओर जहाँ ज्ञान की गहनता पाई जाती है, वहीं दूसरी ओर कल्पना-शक्ति की सूक्ष्मता भी होती है । इस सूक्ष्मता की स्थूल परीक्षा संभव नहीं रही है, फलतः शास्त्रों को सर्वोच्च प्रमाण मानने की प्रवृत्ति का उदय हुआ। तत्त्वज्ञान के लिए आवश्यक प्रमाणों में शास्त्रप्रमाण एक प्रमुख अवयव माना जाने लगा। पिछले पांच सौ वर्षों में सत्यान्वेषण का एक नया माध्यम सामने आया है, जिसमें तथ्यों एवं विचारों का प्रयोगों द्वारा सत्यापन किया जाता है । इनके विषय में प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने के लिए सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी एवं अन्य सुग्राही उपकरणों की सज्जा की गई है । वस्तुतः वर्तमान युग प्रायोगिक सत्यापन का युग ही माना जाता है । इस युग में वैचारिक पद्धति की एकमात्र सत्यता पर काफी टीका-टिप्पणी हुई है और अब यह माना जाने लगा है कि वस्तुतः ये दोनों पद्धतियाँ एक दूसरे की पूरक हैं । जहाँ वैचारिक पद्धति में बुद्धि-चक्षु ही निपुण होते हैं, वहाँ प्रायोगिक पद्धति में चर्मचक्षु या यन्त्र-चक्षु अपना करिश्मा प्रदर्शित करते हैं। ये यन्त्र-चक्षु अदृश्य या अमूर्त जगत् सम्बन्धी विचारों की समीचीनता की परीक्षा के लिए तो प्रयुक्त किये ही जा सकते हैं। ज्ञान और दर्शन का समन्वय - वास्तव में, जैनदर्शन में जीव या चेतन को ज्ञान-दर्शन द्वारा अभिलक्षणित करने की बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। लेकिन ज्ञान और दर्शन की शास्त्रोक्त परिभाषायें व्यावहारिक मान्यताओं से एकदम मेल नहीं खाती हैं । वस्तुतः हमें ज्ञान को निराकार और दर्शन को साकार मानना चाहिए। इस दृष्टि से जहाँ ज्ञान वैचारिक पद्धति को निरूपित करता है वहाँ दर्शन प्रयोगात्मक पद्धति को निरूपित करेगा। फलतः वस्तु तत्त्व का ज्ञान इन दोनों पद्धतियों के समन्वय COM ADI M . S. B E /mamichitremergePage Navigation
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