Book Title: Adarsh Tapasvi Namisagar
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 1
________________ आदर्श तपस्वी आचार्य नमिसागर : एक परिचय आचार्य : मिसागरका जन्म सन् १८८८ में दक्षिण कर्णाटक प्रान्तके शिवपुर गाँव (जिला वेलगाँव) में हआ। आपका जन्मनाम 'म्होणप्पाहोणप्पा' है । आपके पिताका नाम यादवराव और माताका नाम कालादेवी है । दो वर्षकी अवस्थामें पिताका और १२ वर्षकी अवस्थामें माताका वियोग हो गया था। प्रारम्भिक शिक्षा बचपनमें आपको पढ़ने में रुचि नहीं थी। अपने अध्यापकोंको चकमा देकर स्कूलसे भाग जाते थे और तीन-तीन दिन तक जंगलमें वक्षोंपर पेटसे कपड़ा बाँधकर चिपके रहते थे तथा भूख-प्यास भी भल जाते थे । अतएव आपने प्रारम्भिक शिक्षा कर्णाटकीकी पहली दो पुस्तकों भरकी ली। विवाह और गृहत्याग सन् १९१४ में २६ वर्षको अवस्थामें आपका विवाह हुआ, ४ वर्ष बाद गौना हुआ और एक वर्ष तक धर्मपत्नीका संयोग रहा । पीछे उससे एक शिशुका जन्म हुआ, किन्तु तीन माह बाद उसकी मृत्यु हो गई और उसके तीन माह बाद शिशुकी माँका भी स्वर्गवास हो गया। आप दस-दस, बीस-बीस बैलगाड़ियों द्वारा कपास, मिर्च, बर्तन आदिका व्यापार करते थे। एक दिन आप कपास खरीदनेके लिए जाम्बगी नामके गाँवमें, जो तेरदाड़ राज्यमें है, गये । वहाँ रातको भोजन करते समय भोजनमें दो मरे झिंगरा (एक प्रकारके लाल कोड़े) दीख गये । उसी समय आपको संसारसे वैराग्य हो गया और मनमें यह विचार करते हए कि "मैं कितना अधम पापी और धर्म-कर्म हीन हूँ कि इस आरम्भपरिग्रहके कारण दो जीवोंका घात कर दिया।" घर-बार छोड़कर संवेगी श्रावक हो गये। तीन वर्ष तक आप इसी श्रावक वेषमें घूमते रहे। बोरगांवमें पहुंचकर श्रीआदिसागरजी नामके मुनिराजसे क्षुल्लक-दीक्षा ले ली और फिर दो वर्ष बाद ऐलक-दीक्षा भी ले ली। पांच वर्ष तक आप इस अवस्थामें रहे। साधु-दीक्षा सन् १९२९ में श्री सोनागिरजी (मध्यप्रदेश) में चारित्रचक्रवर्ती तपोनिधि आचार्य शान्तिसागरजी महाराजके निकट साधु-दीक्षा ग्रहण की और उन्हें अपना दीक्षा-गुरु बनाया । क्षुल्लकावस्थासे लेकर आपने जनविद्री, जयपुर, कटनी, ललितपुर, मथुरा, देहली, लाडनू टांकाटूका (गुजरात), जयपुर, अजमेर, व्यावर, हाँसी आदि अनेक स्थानों-नगरों तथा गांवोंमें ३० चातुर्मास किये और भारतके दक्षिणसे उत्तर और पश्चिमसे पूर्व समस्त भागोंमें विहार किया। इस विहारमें आपने लगभग दस हजार मोलकी पैदल यात्रा की और जगह-जगहकी जनताको आत्म-कल्याणका आध्यात्मिक एवं नैतिक उपदेश देकर उनका बड़ा उपकार किया । आचार्य-पद सन् १९४४ में आप तारंगामें आचार्य कुन्थुसागरजीके संघमें सम्मिलित हो गये। संघ जब विहार करता हुआ धरियावाद (बागड़) पहुँचा तो आचार्य कुन्थुसागरजीका वहाँ अकस्मात् स्वर्गवास हो गया । संघने पश्चात् आपको तपादि विशेषताओंसे 'आचार्य' पदपर प्रतिष्ठित किया। -४५१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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