Book Title: Acharya Kundakunda
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 4
________________ इन उपर्युक्त आठ पाहुडोंको 'अष्टपाहुड' कहा जाता है और आरम्भके ६ पाहुडोंपर श्रुतसागर सूरिकी संस्कृत-व्याख्याएँ हैं। १३. बारस अणुवेक्खा-इसमें वैराग्योत्पादक १२ अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) का ९१ गाथाओं में प्रतिपादन है। १४. सिद्धभत्ति-इसमें १२ गाथाओं द्वारा सिद्धोंका स्वरूप व उनकी भक्ति वर्णित है । १५. सुदभत्ति-इसमें ११ गाथाएँ हैं। उनमें श्रुतकी भक्ति प्रतिपादित है । १६. चारित्तभत्ति-इसमें १० अनुष्टुप् गाथाओं द्वारा पाँच प्रकारके चारित्रका दिग्दर्शन हैं । १७. योगिभत्ति--२३ गाथाओं द्वारा इसमें योगियोंकी विभिन्न अवस्थाओंका विवेचन है । १८. आयरियभत्ति-इसमें १० गाथाओं द्वारा आचार्यके गुणोंकी संस्तुति की गयी है। १९. णिव्वाणभत्ति-इसमें २७ गाथाएँ हैं और उनमें निर्वाणका स्वरूप एवं निर्वाणप्राप्त तीर्थकरोंकी स्तुति की गयी है। २०. पंचगुरुभत्ति-यह सात गाथाओंकी लघु कृति है और पांच परमेष्ठियोंकी भक्ति इसमें निबद्ध है। २१. थोस्सामिथुदि-इसमें ८ गाथाओं द्वारा ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति की गयी है । इन रचनाओंके सिवाय कुछ विद्वान् 'रयणसार' और 'मूलाचार' को भी कुन्दकुन्दकी रचना बतलाते है। कुन्दकुन्दकी देन कन्दकन्दके इस विशाल वाङ्मयका सूक्ष्म और गहरा अध्ययन करनेपर उनकी हमें अनेक उपलब्धियाँ अवगत होती हैं । उनका यहाँ अंकन करके उनपर संक्षिप्त विचार करेंगे । वे ये हैं १ साहित्यिक उद्भावनाएँ, २ दार्शनिक चिन्तन, ३ तात्त्विक विचारणा और ४ लोककल्याणी दृष्टि । १. साहित्यिक उद्भावनाएं-हम पहले कह आये है कि कुन्दकुन्दकी उपलब्ध समग्र प्रन्थ-रचना प्राकत-भाषामें निबद्ध है। प्राकृत-साहित्य गद्य सूत्रों और पद्य सूत्रों दोनोंमें उपनिबद्ध हआ है। कन्दकन्दने अपने समग्र ग्रन्थ, जो उपलब्ध हैं, पद्यसूत्रों-गाथाओंमें ही रचे हैं। प्राकृतका पद्य-साहित्य यद्यपि एकमात्र माधा-छन्द में, जो आर्याछन्दके नामसे प्रसिद्ध है, प्राप्त है । किन्तु कुन्दकुन्दके प्राकृत पद्य-वाङ्मयकी विशेषता यह है कि उसमें गाथा-छन्दके अतिरिक्त अनुष्टुप् और उपजाति छन्दोंका भी उपयोग किया गया है और मन्दवैविध्यसे उसमें सौन्दर्य के साथ आनन्द भी अध्येताको प्राप्त होता है । अनुष्टुप् छन्दके लिए भावपाड गाथा ५९, नियमसार गाथा १२६ और उपजाति छन्दके लिए प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारकी 'णिद्धस्स राहिएण' गाथाएँ द्रष्टव्य हैं। यद्यपि षट्खण्डागमके पंचम वर्गणाखण्डके ३६ वें 'णिस्स णि ण' मत्रको ही अपने ग्रन्थका अंग बना लिया है। फिर भी छन्दोंकी विविधतामें क्षति नहीं आती। इसी प्रकार अलंकार-विविधता भी उनके ग्रन्थोंमें उपलब्ध होती है, जो कान्यकी दृष्टि से उसका होना अच्छा है। अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार के लिए भावपाहुडकी 'ण मुयइ पडि अभवो' (१३७ संख्यक) गाथा. मालंकारके लिए इसी ग्रन्थकी 'जह तारयाण चंद्रों' (१४३ संख्यक) गाथा और रूपकालंकारके लिए उसीको 'जिणवरचरणंबुरुह' (१५२) गाथा देखिए। इस प्रकार कुन्दकुन्दके प्राकृत वाङ्मयमें अनेक साहित्यिक उद्भावनाएँ परिलक्षित होती हैं, जिससे अवगत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द केवल सिद्धान्तवेत्ता मनीषी -४१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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