Book Title: Acharya Hastimalji evam Nari Jagaran Author(s): Sushila Bohra Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 3
________________ • २२२ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व आध्यात्मिक दोनों ज्ञान के लिये सतत प्रेरणा देते थे। उनका कहना था कि जिस प्रकार नल के द्वारा गगन चुम्बी अट्टलिकाओं पर पानी पहुँच जाता है, वैसे ही ज्ञान-साधना द्वारा आत्मा का ऊर्ध्वगमन हो जाता है। प्राणी मात्र के हृदय में ज्ञान का अखंड स्रोत है, कहीं बाहर से कुछ लाने की आवश्यकता नहीं, परन्तु निमित्त के बिना उसका प्रकटीकरण संभव नहीं है। स्वाध्याय निमित्त बन तूली के घर्षण का काम कर ज्ञान-शक्ति को अभिव्यक्त कर सकता है। आज सत् साहित्य की अपेक्षा चकाचौंधपूर्ण साहित्य का बाहुल्य है। नवशिक्षित एवं नई पीढ़ी उस भड़कीले प्रदर्शन से सहज आकर्षित हो बहकने लगते हैं, अतएव गंदे साहित्य को मल की तरह विसर्जित करने की सलाह देते थे तथा सत्साहित्य के पाठन-पठन हेतु सदा प्रेरित करते रहते थे। जब भी मैं दर्शनार्थ पहुँचती तो पूछते-स्वाध्याय तो ठीक चल रहा है। ज्ञान की सार्थकता पाचरण में-ज्ञान एवं क्रिया का समन्वय ही मोक्ष मार्ग है अन्यथा जानकारी बुद्धि-विलास एवं वाणी-विलास की वस्तु रह जायेगी। गधे के सिर पर बावना चंदन है या सादी लकड़ी यह वह नहीं जानता । उसके लिये वह बोझा है। बिना समझ एवं आचरण के ज्ञान भी ऐसा ही बोझा है । आचार्य श्री ने ज्ञान के साथ आचरण और आचरण के साथ ज्ञान जोड़ने की दृष्टि से सामायिक एवं स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी। प्रवचनों के दौरान सामायिक के स्मरण का वर्णन करते हुए मौन सामायिक तथा स्वाध्याययुक्त समायिक के लिये ही प्रोत्साहित करते थे। क्योंकि ज्ञान ही मन रूपी घोड़े पर लगाम डाल सकता है "कसो वस्त्र से तन को, ज्ञान से मन को समझावो हो। 'गज मुनि' कहे, उच्च जीवन से होत भलाई हो।" प्राचरण का निखार तप से--प्राचार्य श्री बहनों की तपाराधना के बहत प्रशंसक थे, लेकिन तप ऐसा हो जिससे जीवन में निखार आवे। तय और धर्मक्रिया न तो लोक-परलोक की कामना से हो न सिद्धि-प्रसिद्धि की भावना हेतु हो । कामना पूर्वक तप करना उसे नीलामी चढ़ाना है। पीहर के गहने कपड़ों की इच्छा या कामना तपश्चर्या की शक्ति को क्षीण करती है क्योंकि वह कामना लेन-देन की माप-तौल करने लगती है। महिमा, पूजा, सत्कार, कीर्ति, नामवरी, अथवा प्रशंसा पाने के लिये तपने वाला जीव अज्ञानी है। अतएव आचार्य श्री बहनों को विवेकयुक्त तप करने तथा तपश्चर्या पर लेन-देन न करने के नियम दिलवाया करते थे। वे व्याख्यान में फरमाया करते थे कि तपस्य के समय को और उसकी शक्ति को जो मेंहदी लगवाने, बदन को सजाने अंलकारों से सज्जित करने में व्यर्थ ही गंवाते हैं, मैं समझता हूँ ऐसा करने वाले Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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