Book Title: Acharya Hasti me Guru Tattva
Author(s): Manjula Bamb
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 151 आचार्य श्री हस्ती में गुरु तत्त्व डॉ. मंजुला बम्ब गुरु की विशेषताओं से ओतप्रोत आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज उच्चकोटि के साधक सन्त होने के साथ जन-जन के मार्गदर्शक एवं हितैषी थे। आचार्य हस्ती में गुरु तत्त्व का प्रतिपादन डॉ. मंजुला जी ने इस आलेख में कुशलता से किया है। -सम्पादक जैन धर्म के तीन आराध्य तत्त्वों में देव तत्त्व के पश्चात् सर्वाधिक पूजनीय 'गुरु' तत्त्व है। विश्व के सभी धर्मों एवं संस्कृतियों में 'गुरु' को महिमा मण्डित किया गया है। अरिहंत या तीर्थंकर प्रत्येक काल में प्रत्यक्ष विद्यमान नहीं होते। उनकी अनुपस्थिति में उनका प्रतिनिधित्व करने वाला गुरु ही होता है। देव की पहचान कराने वाला गुरु ही होता है। गुरु पद की महिमा का बखान करते हुए एक आचार्य ने कहा है अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः ।। अर्थात् अज्ञानरूपी अन्धेरे के कारण अंधे बने हुए लोगों की आँखें जिन्होंने ज्ञानरूपी अंजन आंजने की सलाई से खोल दी, उनश्री गुरु को मेरा नमस्कार हो। कबीर ने गुरु को गोविन्द से भी बड़ा बताया है। क्योंकि गुरु ही वह माध्यम है, जिससे गोविन्द की पहचान होती है। सच्चा गुरु वह है जिसने जगत् से नाता तोड़कर परमात्मा में शुभ ध्यान लगा लिया है, जो क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों का त्यागी है तथा जो क्षमा रस से ओत-प्रोत है। गुरु मार्गदर्शक होते हैं । अज्ञानतावश संसार में भटकते हुए मनुष्यों को ध्येय तक पहुँचने के लिये धर्म की सही राह गुरु ही बताते हैं। वे ही धर्म का स्वरूप समझाते हैं, धर्माचरण की प्रेरणा देते हैं तथा धर्माचरण के दौरान जो विघ्न बाधाएँ या कठिनाइयाँ आती हैं, उन्हें दूर करने के उपाय भी बताते हैं। वे कष्ट से घबराये हुये, अनिष्ट संयोग और इष्ट वियोग से चिन्तित और शोक-मग्न व्यक्ति को धैर्यपूर्वक सहन करने की प्रेरणा भी देते हैं तथा निराश और निरुत्साह व्यक्ति का उत्साह बढ़ाते हैं। उसमें साहस की शक्ति भर देते हैं। आचार्य हस्ती धर्म और अध्यात्म के विषय में, समाज, संस्कृति और नीति के विषय में जिज्ञासु व्यक्तियों की शंकाओं के समाधान कर उन्हें धर्मानुप्राणित मार्गदर्शन देते थे। इस प्रकार वे स्व-पर कल्याण का, परोपकार का, उत्तरदायित्व निभाते थे। वे प्रत्येक विषय में जो भी प्रेरणा, निर्देश, उपदेश या मार्गदर्शन देते वह सब अहिंसा-सत्यादिशुद्ध नीतियुक्त धर्म का पुट लिए हुए होता था। गुरुहस्ती प्रतिभावान, शास्त्रज्ञ, लोकव्यवहार के ज्ञाता, निर्लोभी, उपशमपरिणामी, आगे की बात को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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