Book Title: Acharang aur Kabir Darshan
Author(s): Nizamuddin
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 3
________________ “कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंते ।” (शीतोष्णीय, १,४९ ) अर्थात् वीर पुरुष कषाय के आदिभूत क्रोध और मान को नष्ट करे। लोभ को महान नरक के रूप में देखे। 'आचारांग' में अहिंसा तथा अपरिग्रह की चर्चा बार-बार की गई है, कबीर ने भी इनका बार-बार उल्लेख किया है कुछेक उदाहरण देखिए - मोह के कारण व्यक्ति जन्म-मरण को प्राप्त होता है। हिंसा अनार्यवचन है और अहिंसा आर्य वचन है - - सब आत्माएं समान हैं - सव्वेसिं जीवियं पियं (लोक. ३, ६४) सब प्राणियों को जीवन प्रिय है मोहेण गब्धं मरणाति अति (लोक. १, ७) समय लोगस्स जाणिता (३, १, ३) मनुष्य परिग्रह से अपने आपको अणारियवयणमेयं। आरियवयणमेयं ॥ ( सम्यक्त्व २, २१-२४) १. Jain Education International .. परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा (२, ११७) 'आचारांग' (लोक. १०१, १०३) में स्पष्टतः कहा गया है कि जिसे तू हनन करने योग्य समझता है वह तू ही है, चूंकि अपना किया कर्म भोगना पड़ता है इसलिए किसी का वध न करना चाहिए । शुद्ध - अशुद्ध आहार के विषय में यहाँ निर्दिष्ट मत ध्यातव्य है । १ अशुद्ध भोजन के परित्याग का दिया गया यह उपदेश आज के युग में बहुत आवश्यक है, मद्य मांस, मछली, अण्डा सभी का त्याग कर शुद्ध, सात्विक, शाकाहारी भोजन लेना चाहिए जो न पाप का भागी बनता है न रोग उत्पन्न करने वाला है। कबीर ने मांसाहार की निंदा की है - लोकविजय, १०८ - रखे दूर सांझै मुरगी मारे। कबीर ने अहंकार की, तृष्णा की, लोभवृत्ति की खूब निन्दा की है। अहंकारी मनुष्य को सुख कहां, परमात्मा की प्राप्ति कहां - उनको बिहिश्त कहां तें होहि, मैमता मन मारि ने, नान्हा करि करि पीस | तब सुख पावै सुन्दरी, ब्रह्म झलक्कै सीस ॥ (१७८) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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