Book Title: Acharang Sutra me Shraman Jivan
Author(s): Manmal Kudal
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 7
________________ 286 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 ॥ आध्यात्मिकता में जागता है (44)। वह अनुपम प्रसन्नता में रहता है (49)। वह कर्मों से रहित होता है। उसके लिए सामान्य लोक प्रचलित आचरण आवश्यक नहीं होता है (48)। किन्तु उसका आचरण व्यक्ति व समाज के लिए मार्गदर्शक होता है। आचारांग का शिक्षण है कि जिस काम को जागृत व्यक्ति करता है, व्यक्ति व समाज उसको करे (43)। वह इन्द्रियों के विषयों को द्रष्टाभाव से जानता है, इसलिए वह आत्मवान, ज्ञानवान, वेदवान, धर्मवान और ब्रह्मवान कहा जा सकता है (45)। जो लोक में परम तत्त्व को देखने वाला है, वह वहाँ विवेक से जीने वाला होता है। वह तनावमुक्त, समतावान, कल्याण करने वाला, सदा जितेन्द्रिय कार्यों के लिये उचित समय को चाहने वाला होता है तथा वह अनासक्तिपूर्वक लोक में गमन करता है (59)। उस महामानव के आत्मानुभव का वर्णन करने में सब शब्द लौट आते हैं, उसके विषय में कोई तर्क उपयोगी नहीं होता है, बुद्धि उसके विषय में कुछ भी पकड़ने वाली नहीं होती है (81) आत्मानुभव की वह अवस्था आभामयी होती है। वह केवल ज्ञाता-द्रष्टा अवस्था होती है (81)। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में श्रमण-चर्या आचारांग सूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाँच चूलिकाओं में विभक्त है, जिसमें आचार-प्रकल्प अथवा निशीथ नामक पंचम चूलिका आचारांग से अलग होकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ बन गई है। अतः वर्तमान द्वितीय श्रुतस्कन्ध में केवल चार चूलिकाएँ ही हैं। इन चूलिकाओं में श्रमण-चर्या से सम्बन्धित विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है, जिसमें आहार, भिक्षा, ग्राह्यजल, अग्राह्य भोजन, शय्यैषणा, ईर्यापथ, भाषा प्रयोग, वस्त्र धारण, पात्रैषणा, अवग्रहैषणा, मलमूत्र-विसर्जन, शब्द-श्रवण, रूपदर्शन एवं पर क्रियानिषेध मुख्य है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैआहार- श्रमण के लिये यह एक सामान्य नियम है कि यदि अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम छोटे-बड़े जीवों से युक्त हो, काई से व्याप्त हो तो, गेहूँ आदि के दानों के सहित हो, हरी वनस्पति आदि से मिश्रित हो, ठण्डे पानी से भिगोया हुआ हो, रजवाला हो तो उसे भिक्षु स्वीकार न करे। भोजन करने के स्थान के बारे में कहा गया है कि स्थान एकान्त हो, किसी वाटिका, उपाश्रय अथवा शून्यगृह में किसी के न देखते हुए वह भोजन करे। भिक्षा के लिये अन्य मत के साधु अथवा गृहस्थ के साथ किसी के घर में प्रवेश न करे अथवा घर से बाहर न निकले। जो भोजन अन्य श्रमणों अर्थात् बौद्धश्रमणों, तापसों, आजीविकों आदि के लिये अथवा अतिथियों, भिखारियों, वनीपकों के लिये बनाया गया हो उसे ग्रहण न करे। जिन कुलों में भिक्षु, भिक्षा के लिये जाते थे वे कुल हैं- उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्वाक्षुकुल, हरिवंशकुल, असिअकुल, गोष्ठों का कुल, वेसिअकुल (वैश्यकुल), गंडाग कुल (गाँव में घोषणा करने वाले नापितों का कुल), कोट्टागकुल (बढ़ई कुल), बुक्कस अथवा बोक्कशालिय कुल (बुनकर कुल)। जो कुल अनिन्दित एवं अजुगुप्सित हैं, उन्हीं में भिक्षा के लिए जाना चाहिए। उत्सव के निमित्त से आये हुए व्यक्तियों के भोजन कर लेने पर ही भिक्षु आहार-प्राप्ति के लिए किसी के घर में जाय। संखडि अर्थात् सामूहिक भोज में भिक्षा के लिए जाने का निषेध करते हुए कहा गया है कि इस प्रकार की भिक्षा अनेक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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