Book Title: Acharang Sutra ka Mukhya Sandesh Ahimsa aur Asangatta Author(s): Shreechand Surana Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 3
________________ | आचारांग सूत्र का मुख्य संदेश : अहिंसा और असंगता , ....101| 6. इस आगम के प्रत्येक अध्ययन में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र रूप निर्वाण उपाय का प्रतिपादन मिलता है। इस प्रकार आचारांग सूत्र में अध्यात्म के मूल आधार 'आत्मवाद', आत्म विवेक और आत्म-शुद्धि के विविध उपायों का वर्णन है, जो इस आगम को आत्मवाद का आधारभूत शास्त्र सिद्ध करते हैं। __ आचारांग का प्रथम अध्ययन 'शस्त्र परिज्ञा' है। शस्त्र यानी हिंसा तथा हिंसा के साधन। इस अध्ययन में षड्जीव निकाय में चेतन सत्ता की सिद्धि करते हुए उनकी हिंसा के कारण च विरोधी शस्त्रों का वर्णन करते हुए सर्वत्र जीव हिंसा से उपरत रहने का संदेश है। अस्थि सत्थं परेण परं- शस्त्र एक से एक बढ़कर हैं, भयंकर हैं- इस वाक्य ने आधुनिक विज्ञान द्वारा निर्मित अत्यन्त तीक्षा : घातक शस्त्रों के प्रति सावधान किया है और शस्त्र प्रयोग का मूल असंयम मानकर मूल पर ही प्रहार किया गया है। 'असंयम के कारण ही हिंसा की जाती है, इसलिए इस अध्ययन का मुख्य संदेश संयम है। द्वितीय 'लोक विजय' अध्ययन का मुख्य संदेश आसक्ति विजय है। जे गुणे से मूलढाणे- जो इन्द्रिय विषय हैं, वही संसार है। इसी संसार रूप लोक को विजय करने का उपाय बताया है- लोभं अलोमेणं दुगुंछमाणे- लोभ को संतोष से, कामनाओं को निष्कामता से जीतोविरक्त वीतराग ही संसार का विजेता बनता है। इसी प्रकार इसके सभी नौ अध्ययन जीवनस्पर्शी हैं और बाह्याचार की जगह अन्तर आचार, तितिक्षा, विरक्ति, परिग्रह त्याग, असंगता, समाधि, ध्यान आदि विषयों पर केन्द्रित हैं। आचारांग में अपनी सामयिक विचारधाराओं पर भगवान महावीर का अपना स्वतंत्र व सार्वभौम चिन्तन भी स्पष्ट झलकता है। उस युग में वैदिक विचारधारा के अनुसार 'अरण्य--साधना' का विशेष महत्त्व था। अरण्यवाद को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता था, किन्तु भगवान महावीर ने इसमें संशोधन प्रस्तुत किया और कहा- यह एकान्त सत्य नहीं है कि अरण्य में ही साधना हो सकती है— गामे वा अदुवा रणे- साधना गांव में भी हो सकती है, नगर में भी। जहां भी चिन की निर्मलता और स्थिरता सध सके वहीं पर साधना की जा सकती है। स्मृतियों के अनुसार शूद्र धर्म सुनने का अधिकारी नहीं था। केवल उच्चवर्ण को ही धर्मसभाओं में जाने और शास्त्रचर्चा करने का अधिकार प्राप्त था। इसके विपरीन भगवान महावीर ने उद्घोष किया- जहा पुण्णरस कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई। साधक सबको समान भाव से धर्म का उपदेश करे। उच्च या पुण्यवान को भी और दरिद्र को भी धर्म का उपदेश करे। इसी प्रकार वैदिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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