Book Title: Achar Vichar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ आचार-विचार अस्वीकार; जहाँ बीच में कुत्ता जैसा प्राणी खड़ा हो, मक्खियाँ भिनभिनाती हों वहाँ से. भिक्षा का अस्वीकार; मत्स्य माँस 'शराब आदि का अस्वीकार; कभी एक घर से एक कोर, कभी दो घर से दो कोर आदि की भिक्षा लेना, तो कभी एक उपवास, कभी दो उपवास आदि करते हुए पन्द्रह उपवास तक भी करना; दाढ़ीमूछों का लुचन करना, खड़े होकर और उक्कडु आसन पर बैठकर तप करना; स्नान का सर्वथा त्याग करके शरीर पर मल धारण करना, इतनी सावधानी से जाना-पाना कि जलबिंदुगत या अन्य किसी सूक्ष्म जन्तु का धात न हो, सख्त शीत में खुले रहना अज्ञ और अशिष्ट लोगों के थूके जाने, धूल फेंकने, कान में सलाई घुसड़ने आदि पर रुष्ट न होना / बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित उक्त आचारों के साथ जैन श्रागमों में वर्णन किये गए निर्ग्रन्थ-याचारों का मिलान करते हैं तो इसमें संदेह नहीं रहता कि बुद्ध की समकालीन निर्ग्रन्थ-परंपरा के वे ही आचार थे जो आज भी अक्षरशः स्थूल रूप में जैन-परंपरा में देखे जाते हैं। तब क्या आश्चर्य है कि महावीर की पूर्वकालीन पावापत्यिक-परंपरा भी उसी प्राचार का पालन करती हो। श्राचार का कलेवर भले ही निष्प्राण हो जाए पर उसे धार्मिक जीवन में से च्युत करना और उसके स्थान में नई अाचारप्रणाली स्थापित करना यह काम सर्वथा विकट है। ऐसी स्थिति में भ० महावीर ने जो बाह्याचार निर्ग्रन्थ-परंपरा के लिये अपनाया वह पूर्वकालीन निग्रन्थ परंपरा का ही था, ऐसा माने तो कोई अत्युक्ति न होगी; अतएव सिद्ध होता है कि कम से कम पार्श्वनाथ से लेकर सारी निर्घन्ध-परंपरा के श्राचार एक से ही चले आए हैं। चतुर्याम बौद्ध पिटकान्तर्गत 'दीघनिकाय' और 'संयुत्त निकाय' में निर्ग्रन्थों के महाव्रत की चर्चा आती है। दीघनिकाय' के 'सामञ्चफलसुत्त' में श्रेणिक बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु-कुणिक ने ज्ञातपुत्र महावीर के साथ हुई अपनी मुलाकात का वर्णन बुद्ध के समक्ष किया है, जिसमें ज्ञातपुत्र महावीर के मुख से ___ 1. सूत्रकृताङ्ग 2-2-23 में निर्ग्रन्थ भिक्षु का स्वरूप वर्णित है / उसमें उन्हें 'अमज्जमंसासिणो'-अर्थात् मद्य-माँस का सेवन न करने वाला-कहा है / निस्संदेह निर्ग्रन्थ का यह औत्सर्गिक स्वरूप है जो बुद्ध के उक्त कथन से तुलनीय है / 2. दीघ० महासीहनाद सुत्त० 8 / दशवै० अ० 5.; आचा० 2. 1. 3. दीप० सु० 2 / संयुत्तनिकाय Vol 1. 1.66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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