Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh aur uske Praneta Yugpurush Rajendrasuri Author(s): Punyavijay Publisher: Punyavijayji View full book textPage 2
________________ અભિધાનરાજેન્દ્રકોશ ઓર ઉસકે પ્રણેતા t૧૨૩ सूरिनिर्मित नवाङ्गीवृत्तिके परीक्षक एवं शोधक श्री द्रोणाचार्य, मलधारी हेमचन्द्रसूरि, आचार्य श्री चन्द्रसूरि, आचार्य श्री मलयगिरि, आचार्य श्री क्षेमकीर्ति आदि सूरिवरोंने जैन आगमोंके ऊपर विस्तृत एवं अति स्पष्ट वृत्ति, व्याख्या, विवरण, टोका, टिप्पणोकी रचनाएं की। आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री मल्लवादी आचार्य, श्री सिंहवादिगणि क्षमाश्रमण, आचार्य श्री हरिभद्र, श्री सिद्धव्याख्याता, अभयदेव तर्कपश्चानन, वादिवेताल श्री शान्तिसूरि, श्री मुनिचन्द्रसूरि, श्री वादिदेवसूरि, श्री हेमचन्द्राचार्य, श्री रत्नप्रभसूरि, श्री नरचन्द्रसूरि, मलधारी देवप्रभसूरि, पञ्चप्रस्थान महाव्याख्या ग्रन्थके रचयिता श्री अभयतिलकगणि, श्री राजशेखर, श्री पार्श्वदेवगणि प्रमुख तार्किक आचायौंने विविध प्रकारके दर्शनप्रभाषक मौलिक शास्त्रोंकी एवं व्याख्याग्रन्थों की रचना की । आचार्य श्री शिवशर्म, श्री चन्द्रर्षि महत्तर, श्री गर्गषि, श्री अभयदेवसूरि, श्री जिनवल्लभगणि, श्री देवेन्द्रसूरि आदि कर्मवादविषयक शास्त्रोंके ज्ञाताओंने कर्मवादविषयक मौलिक शास्त्रोंका निर्माण किया। इस प्रकार अनेकानेक आचार्यवरोंने जैन आगमिक एवं औपदेशिक प्रकरण, तीर्थकर आदिके संस्कृत-प्राकृत चरित्र और कथाकोश, व्याकरण-कोश-छन्द-अलङ्कार-काव्य-नाटक-आख्यायिका आदि विषयक साहित्यग्रन्थ, स्तोत्रसाहित्य आदिका विशाल राशिरूपमें निर्माण किया है। अन्तमें कितनेक विद्वान् महानुभाव आचार्य एवं श्रावकवरोंने चालु हिंदी, गूजराती, राजस्थानी आदि भाषाओंमें प्राचीन विविध ग्रन्थों का अनुवाद और स्वतंत्र रासादि साहित्यका अति विपुल प्रमाणमें आलेखन किया है । इस प्रकार आज पर्यन्त अनेकानेक महानुभाव महापुरुषोंने जैन वाङ्मयको समृद्ध एवं महान् बनानेको सर्वदेशीय प्रयत्न किया है, जिससे जैन वाङ्मय सर्वोत्कृष्टताके शिखर पर पहुंच गया है । इस उत्कृष्टताके प्रमाणका नाप निकालनेके लिये और इसका साक्षात्कार करनेके लिये आयत गज भी अवश्य चाहिये । अभिधानराजेन्द्रकोशका निर्माण करके सूरिप्रवर श्री राजेन्सूरि महाराजने जैन वाङ्मयकी उत्कृष्टता एवं गहराईका नाप निकालनेके लिये यह एक अतिआयत गज ही तैयार किया है। 'विश्वकी प्रजाओंने धर्म, नीति, तत्त्वज्ञान, संस्कृति, कला, साहित्य, विज्ञान, आचार-विचार आदि विविध क्षेत्रों में क्या, कितनी और किस प्रकारको प्रगति एवं क्रान्ति की है ? और समग्र प्रजाको संस्कारका कितना भारी मौलिक वारसा दिया है ?' इसका परिचय पानेके अनेकविध साधनोंमें सबसे प्रधान साधन, उनकी मौलिक भाषाके अनेकविध व्याकरण एवं शब्दकोश ही हो सकते हैं, विशेषकर शब्दकोश ही। प्राकृत भाषा, जैन प्रजाकी मौलिक भाषा होने पर भी इस भाषाके क्षेत्रमें प्रायोगिक विधानका निर्माण करनेके लिये प्राचीन वैदिक एवं जैनाचार्योने काफी प्रयत्न किया है । और इसी कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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