Book Title: Aavashyak Sutra par Vyakhya Sahitya Author(s): Devendramuni Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 4
________________ 280 अर्थाधिकार पर विचार किया गया है। सामायिक पर चिन्तन करते हुए कहा है- समभाव ही सामायिक का लक्षण है। सभी द्रव्यों का आधार आकाश है, वैसे ही सभी सद्गुणों का आधार सामायिक है। सामायिक के दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन भेद हैं। किसी महानगर में प्रवेश करने के लिये अनेक द्वार होते हैं, वैसे ही सामायिक अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय- ये चार द्वार हैं। इन चारों द्वारों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आठों कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितियों के रहते हुए जीव को सामायिक का लाभ नहीं हो सकता । कषाय के उदय के कारण दर्शन आदि सामायिक प्राप्त नहीं हो सकती। यदि कदाचित् प्राप्त हो भी गई तो वह पुनः नष्ट हो जाती | सामायिक में सावद्य योग का त्याग होता है। वह इत्वर और यावत्कथिक के रूप में दो प्रकार की हैं। इत्वर सामायिक अल्पकालीन होती है और यावत्कथिक सामायिक जीवनपर्यन्त के लिये । भाष्यकार ने सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र का विस्तार से विवेचन किया है। जिनवाणी सामायिक चारित्र का उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, अनुमत, किम्, कतिविध, कस्य, कुत्र, केषु कथम्, कियच्चिर, कति, सान्तर, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन और निरुक्ति, इन छब्बीस द्वारों से वर्णन किया गया है। सामायिक संबंधी जितनी भी महत्त्वपूर्ण बातें हैं, वे सभी इन द्वारों में समाविष्ट हो गई हैं। निह्रववाद पर विस्तार से चर्चा है । अन्त में 'करेमि भंते' आदि सामायिक सूत्र के मूल पदों पर विचार किया गया है। 15, 17 नवम्बर 2006 भाष्यसाहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का अनूठा स्थान है। विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्र की अन्तिम रचना है। उन्होंने इस पर स्वोपज़वृत्ति भी लिखनी प्रारम्भ की थी, किन्तु पूर्ण होने से पहले ही उनका आयुष्य पूर्ण हो गया था, जिससे वह वृत्ति अपूर्ण ही रह गई। विज्ञों का अभिमत है कि जिनभद्रगणी का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५० से ६६० के आस-पास होना चाहिये। चूर्णिसाहित्य नियुक्ति और भाष्य की रचना के पश्चात् जैन मनीषीयों के अन्तर्मानस में आगमों पर गद्यात्मक व्याख्या साहित्य लिखने की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्याओं की रचना की, जो आज चूर्णिसाहित्य के रूप में विश्रुत है । चूर्णिसाहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणी महत्तर का मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने सात चूर्णियाँ लिखीं। उसमें आवश्यकसूत्र चूर्णि एक महत्त्वपूर्ण रचना है। Jain Education International यह चूर्णि निर्युक्ति के अनुसार लिखी गई है, भाष्य गाथाओं का उपयोग भी यत्र-तत्र हुआ है। मुख्य रूप से भाषा प्राकृत है किन्तु संस्कृत के श्लोक व गद्य पंक्तियाँ भी उद्धृत की गई हैं। भाषा प्रवाहयुक्त है। शैली में लालित्य व ओज है । ऐतिहासिक कथाओं की प्रचुरता है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों से विस्तृत है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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