Book Title: Aatmbodh Sukh Ka Raj Marg
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 3
________________ इन्द्रियों की हीनता होती है, उन्हें उनके माध्यम से होनेवाला ज्ञान भी अनुभूत नहीं हो पाता । इस प्रकार प्रात्मा स्वयं ज्ञाता होकर भी मन तथा इन्द्रियों के आश्रित रहती है। इसी कारण से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहा गया है। आत्म-बोध : ज्ञान को सही दिशा : आत्मा का ज्ञान, जो प्रायः सभी साधकों को हो रहा है, वह कौन-सा ज्ञान है ? उसके माध्यम में न आँख है, न कान है, न नाक है, न जिह्वा है और न त्वचा है, इस ज्ञान का माध्यम है-मन! आत्मा के सम्बन्ध में शास्त्रों में जो वर्णन आया है, उसे हम पढते हैं. फिर चिन्तनमनन करते हैं, और तब मन के चिंतन द्वारा आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है । यह आत्मा का बोध परोक्ष बोध है, क्योंकि इसमें मन निमित्त है। आत्मा का प्रत्यक्ष बोध तो एकमात्र केवलज्ञान से ही होता है। परन्तु, यह परोक्ष बोध भी कुछ कम महत्त्व का नहीं है। वास्तव में आत्मा का सम्यक-बोध होना ही, ज्ञान की सही दिशा है, इसी का नाम 'सम्यक्त्व' है। इसे हर कोई प्राप्त नहीं कर सकता। यह ज्ञान उसी को होता है, जिसकी मन की चिन्तन क्रिया स्वच्छ, निर्मल एवं विशिष्ट प्रकार की होती है। स्वच्छ निर्मल मनवाला व्यक्ति ही आत्मा के मंदिर में प्रवेश कर सकता है और उसकी झाँकी देख सकता है। हर किसी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं कि वह यों ही राह चलता आत्ममंदिर में प्रवेश कर ले और प्रात्म-देवता की झाँकी देख ले। इसके लिए विशिष्ट साधना एवं निर्मलता की अपेक्षा रहती है। प्रात्मा का यह बोध मन के माध्यम से होता है, अतः इसको परोक्ष ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान कहते हैं । परन्तु, यह परोक्ष बोध प्रात्मा के प्रत्यक्ष बोध की अोर ले जाता है, आज परोक्ष है, तो वह कभी-न-कभी प्रत्यक्ष भी अवश्य हो जाएगा। अवधि और मनःपर्याय : __ एक प्रश्न है कि गणधर गौतम स्वामी आदि को जो आत्मा का ज्ञान था, वह किस प्रकार का ज्ञान था? क्या उन्हें अवधि और मन:पर्याय ज्ञान से आत्मा का ज्ञान प्राप्त हुया था ? क्या अवधि और मनःपर्याय ज्ञान से प्रात्मा का बोध हो सकता है ? उत्तर स्पष्ट है कि अवधिज्ञान की पहुँच आत्मा तक नहीं है। उसके निमित्त से तो बाहर के रूपी जड़ पदार्थों का अर्थात् पुद्गलों का ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है। प्रात्मा का ज्ञान नहीं हो सकता। इस अर्थ में तो अवधिज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान ही श्रेष्ठ है, ताकि उसके सहारे कम से कम हमें प्रात्मा का ज्ञान तो प्राप्त होता है। भले ही यह परोक्ष बोध हो, परन्तु आत्मबोध तो होता है। अवधिज्ञान से तो जड़ पुद्गल से भिन्न प्रात्मा का परोक्ष बोध भी नहीं होता। अवधिज्ञान से संसार भर के जड़ पुद्गल पदार्थों का ज्ञान तो हो जाएगा, किन्तु सम्यक् श्रुतज्ञान से उत्पन्न प्रात्मबोध के अभाव में वह ज्ञान राग-द्वेष का ही कारण बनेगा। तब राग-द्वेष के विकल्पों के प्रवाह में प्रात्मा को संभाल कर रोकनेवाला कोई नहीं रहेगा। अवधिज्ञान कोई बुरा नहीं है, किन्तु उस ज्ञान को सही दिशा देने वाला सम्यक्-तत्त्व श्रुतज्ञान ही है। यदि वह नहीं है, तो अवधिज्ञान बुरे रास्ते पर जा सकता है। अवधिज्ञान तो अभंग या विभंग रूप में नारक तथा देवताओं में भी होता है, परन्तु आत्मबोध के अभाव में उनकी भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। जिसे हम स्वर्ग कहते हैं और सुख की कल्पना का एक बहुत बड़ा प्राधार बनाते हैं, उस स्वर्ग में भी प्रात्मबोध-शून्य मिथ्यादृष्टि देवताओं में परस्पर विग्रहचोरी आदि के दुष्कर्म होते रहते हैं। सम्यक्-श्रुत के अभाव में, यह अवधिज्ञान भी अज्ञान ही माना गया है। इससे आत्मा का कोई कल्याण नहीं होता। मनःपर्यव ज्ञान सम्यक्त्व और साधुत्व के आधार के बिना होता ही नहीं, अत: यह श्रेष्ठ ज्ञान है। परन्तु यह भी आत्मबोध नहीं कर सकता है। इस ज्ञान से अन्य प्राणी के मानसिक विकल्पों का ज्ञान हो जाता है, परन्तु इससे भी क्या लाभ ? अपने मन के विकल्पों का जाल ही बहुत विकट है। मन की गति बड़ी विचित है। यह इतना शैतान है कि आसानी आत्म-बोध: सुख का राज मार्ग Jain Education Intemational १५७ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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