Book Title: Aatm Jagaran
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 1
________________ आत्म-जागरण भक्ति-मार्ग के एक यशस्वी आचार्य ने कभी तरंग में आकर गाया था - "नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं नमोनमः । नमो मां नमो मां, मह्यमेव नमोनमः ॥" श्लोक के पूर्वार्द्ध में लगता है, आचार्य किसी बाह्य-शक्ति के चरणों में सिर झुका रहे हैं। इसलिए वे बार-बार 'तेरे चरणों में नमस्कार' की रट लगा रहे हैं, वे द्वैत के प्रवाह में बह रहे हैं। ऐसा लगता है कि भक्त कहीं बाहर में खड़े भगवान् को रिझाने का प्रयत्न कर रहा है। किन्तु श्लोक का उत्तरार्द्ध पाते ही, लगता है, भक्त की आत्मा जागृत हो जाती है, वह सम्भल जाता है—"अरे ! मैं किसे वन्दना करता हूँ ? मेरा भगवान् बाहर कहाँ है ? मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या उपाश्रय से मेरे भगवान् का क्या सम्बन्ध है ? मेरा भगवान् तो मेरे भीतर ही बैठा है। मैं ही तो मेरा भगवान् हूँ। अतः अपने को ही अपना नमस्कार है।" इस स्थिति में वह उत्तरार्द्ध पर आते-पाते बोल उठता है "नमो मां नमो मा, मह्यमेव नमोनमः।" मुझे ही मेरा नमस्कार है। अपने को अपना नमस्कार करने का अर्थ है कि साधक आत्म-जागृति के पथ पर पाता है, चूंकि उसकी आत्मा और परमात्मा के बीच की खाई पाटने वाला तत्त्व अब स्पष्ट होने लग जाता है। वह भेद से अभेद की ओर, द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ चलता है। अद्वैत की भूमिका : भारत की सांस्कृतिक परम्पराएँ और साधनाएँ इसी आदर्श पर चलती आई हैं। वे द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ी हैं, स्थूल से सूक्ष्म की ओर मुड़ी हैं। बच्चे को जब सर्वप्रथम वर्णमाला सिखाई जाती है, तो प्रारम्भ में उसे बड़े-बड़े अक्षरों के द्वारा अक्षर-परिचय कराया जाता है, जब वह उन्हें पहचानने लग जाता है, तो छोटे अक्षर पढ़ाए जाते हैं और बाद में संयुक्त अक्षर । यदि प्रारम्भ से ही उसे सूक्ष्म व संयुक्त अक्षरों की किताब दे दें, तो वह पढ़ नहीं सकेगा, उलटे ऐसी पढ़ाई से ऊब जाएगा। यही दशा साधक की है। प्रारम्भ में उसे द्वैतकी साधना पर चलाया जाता है। बाह्य रूप में की गई प्रभु की वन्दना, स्तुति आदि के द्वारा अपने भीतर में सोए हुए प्रभु को जगाया जाता है। साधक अपनी दुर्बलताओं, गलतियों का ज्ञान करके उन्हें प्रभु के समक्ष प्रकाशित करता है। प्रकाशित करना तो एक बाह्य भाव समझिए; वास्तव में तो वह प्रभु की निर्मल विशुद्ध आत्म-छवि से अपना मिलान करता है, तुलना करता है और उस निर्मलता के समान ही अपनी अन्तःस्थित शुद्धता, निर्मलता को उद्घाटित करने के लिए विभाव-गत मलिनता को दूर करने का प्रयत्न करता है। जब तक घटिया-बढ़िया दो वस्तुओं को बराबर में रखकर तुलनात्मक श्रात्म-जागरण २०५ www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only

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