Book Title: 1st Jain International Conference
Author(s): Jaina Jito Shrutratnakar
Publisher: Jaina Jito Shrutratnakar

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Page 37
________________ 1st INTERNATIONAL JAIN CONFERENCE जैन धर्म-दर्शन की वैश्विक उपयोगिता में महिलाओं की भूमिका डॉ. श्वेता जैन पोस्ट डाक्टरल फेलो, यू.जी.सी., नई दिल्ली संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर (राजस्थान) मो-094137-82968 Email- kotadiyashweta@gmail.com जैनधर्म विश्व का ऐसा धर्म है, जिसके सिद्धान्तों में वैज्ञानिकता, व्यापकता और व्यावहारिकता है। यह धर्म मनुष्य को मनुष्य होने का अहसास कराता है। जीने की कला के साथ मरने की कला भी सिखाता है। दूसरे के विकास में अपने विकास की भावना से विश्व-विकास में सहायक बनता है। विविधता और विभिन्नता में भी सामंजस्य रखने की क्षमता विकसित करता है। स्वावलम्बी जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करता है। इच्छाओं के सीमाकरण की शिक्षा से पर्यावरण संतुलन में महनीय भूमिका निभाता है। अहिंसा सिद्धान्त के अनुकरण द्वारा यह विश्वशांति कायम रखने में अग्रणी है। इस तरह विश्वपटल पर जैनधर्म-दर्शन की उपयोगिता सर्वमान्य है। जैन सिद्धान्तों की इस वैश्विक उपयोगिता में महिलाओं की महनीय भूमिका है। महिलाएं बच्चों के पालन-पोषण में अहिंसा, दया, परस्परोपग्रह, सत्यव्रत, अचौर्य, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों के अनुकरण द्वारा उनमें मानवीय गुणों का वपन करती हैं। जैन साहित्य ऐसे प्रसंगों से भरे पड़े हैं, जहाँ तीर्थंकर की माताएं, महापुरुषों की माताएं, अपने पुत्रों में ऐसे संस्कार देती हैं कि वे महामानव की श्रेणी में पूजित होते हैं। वर्तमान में भी कई माताएं अपने बच्चों को दया, करुणा, दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना आदि संस्कारों के वपन से बच्चों में उन्नत चरित्र का आधान कर रही हैं। विश्वपटल पर इसका दिग्दर्शन पौलिन आइंस्टाइन के अनेकान्तिक विचार और आचार में होता है। उनके पुत्र अल्बर्ट आइंस्टाइन को जब मंदबुद्धि कहकर स्कूल से बाहर निकाल दिया गया तो उन्होंने स्वयं उसे पढाने का कार्य अपने हाथ में लिया। अपने दयालु व्यवहार और प्यार के द्वारा उसके जीवन को एक नई दिशा दी। स्कूल के अध्यापकों की एकांगी दृष्टि को उसने स्वीकार नहीं किया और प्रत्येक जीव में अनन्त सम्भावनाओं को स्वीकार करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से अपनी क्षमता के अनुसार अल्बर्ट का लालन, पालन और शिक्षण किया। उसी का परिणाम है कि नोबल पुरस्कार विजेता महान् वैज्ञानिक आइन्सटाइन की दृष्टि भौतिकता के साथ आध्यात्मिक भी थी। वह प्रसंग इसप्रकार है जीवन के अंतिम समय में किसी पत्रकार द्वारा आइंस्टाइन से पूछा गया कि आपकी अंतिम इच्छा क्या है? पुनर्जन्म हो तो आप क्या बनना पसंद करेंगे? आइंस्टाइन कुछ क्षण सोचते रहे और बोले- "कुछ भी बनूँ पर वैज्ञानिक नहीं बनना चाहता।' पत्रकार को सदी के इस महान् एवं सफलतम वैज्ञानिक के मुँह से यह बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। पत्रकार

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