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________________ महोपनिषद् | अध्यात्मदर्शना (उपजाति) वाञ्छा निजानन्दघनेऽस्ति चेत्ते, विनीयतां तत् सकलाऽपि तृष्णा / एषैव ते सम्पिबति हि सौख्य-मस्यां कथं रे तव सौख्यतृष्णा // 3 / / // पद्यरत्नम्-४० // मधुरः कान्त आभाति, ह्याभात्यम्लस्तथा जनः / कान्तहीना तु या गोष्ठी, सारण्यरुदनोपमा // 1 // कान्ते तु कार्मणं कम्र, लोके शोकस्य नावधिः / कथमेकत्र तद्वैतं ?, दुग्धाम्लाविव सम्भवेत् // 2 // कान्ताद्विना भवभ्रान्ति-सुधा तेन विना यशः / उद्ग्राहणं यथा व्यर्थं, धनं सत्यं तु ग्रन्थिगम् // 3 / / (उपजाति) कान्ताद्विना या मति मे विधुरा, सा स्तेनवृत्तेन तुलां करोति / नि:शेषतोऽस्माद्विरतोऽस्मि शेषा-देकं निजानन्दघनं श्रितोऽस्मि // 4 // ॥पद्यरत्नम्-४१ // प्रियं विना गता मूर्छा, दुःखप्रासादसंस्थिता / तद्गवाक्षावलम्बेन, प्रतीक्षकपराम्यहम् // 1 // 3900000000000000000 124
SR No.600450
Book TitleMahopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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