________________ श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-३ // 1639 // श्रीनिर्वृताख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः, श्रीद्रोणसूरिरनवद्ययशःपरागः॥९॥ शोधितवान् वृत्तिमिमां युक्तो विदुषां महासमूहेन। शास्त्रार्थनिष्कनिकषणकषपट्टककल्पबुद्धीनाम् // 10 // विशोधिता तावदियं सुधीभिस्तथाऽपि दोषाः किल संभवन्ति / मन्मोहतस्तांश्च विहाय सद्भिस्तद्गाह्यमाप्ताभिमतं यदस्याम् // 11 // यदवाप्तं मया पुण्यं, वृत्ताविह शुभाशयात् / मोहाद्वृत्तिजमन्यच्च, तेनागो मे विशुद्ध्यतात् // 12 // प्रथमादर्श लिखिता विमलगणिप्रभृतिभिर्निजविनेयैः / कुर्वद्भिः श्रुतभक्तिं दरैरधिकं विनीतैश्च // 13 // अस्याः करणव्याख्याश्रुतिलेखनपूजनादिषु यथार्हम् / दायिकसुतमाणिक्यः प्रेरितवानस्मदादिजनान् // 14 // अष्टाविंशतियुक्ते वर्षसहस्रे शतेन चाभ्यधिके / अणहिलपाटकनगरे कृतेयमच्छुप्तधनिवसतौ // 15 // अष्टादश सहस्राणि, षट्शतान्यथ षोडश। इत्येवमानमेतस्याः, श्लोकमानेन निश्चितम् // 16 // अङ्कतोऽपि 18616 // // इति श्रीमचन्द्रकुलनभोनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यवर्यविहितविवरणयुतं श्रीमद्भगवत्यङ्ग समाप्तम् // // 1639 //