________________ श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय. वृत्तियुतम् भाग-३ // 1619 // 35 शतके उद्देशक: 2-11 सूत्रम् 859 कृष्णलेश्यकेन्द्रियादि भंते! कओहिंतो उवव०?, एवं कण्हलेस्सभवसि०एगिदिएहिविसयं बितियसयकण्हलेस्ससरिसंभाणियव्वं / सेवं भंते! रत्ति॥छटुं एगिदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं ॥६॥एवं नीललेस्सभवसि०एगिदियएहिवि सयं / सेवं भंते! रत्ति॥ सत्तमं एगिदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं // 7 // एवं काउलेस्सभवसि०एगिदिएहिवि तहेव एक्कारसउद्देसगसंजुत्तं सयं, एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियाणि सयाणि, चउसुवि सएसुसव्वपाणा जाव उववन्नपुव्वा?, नो इणढे समठे। सेवं भंते! रत्ति ॥अट्ठमं एगिदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं ॥८॥जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाई भणियाइं एवं अभवसिद्धिएहिविच० स० लेस्सासंजुत्ताणि भा०ण, सव्वे पाणा तहेव नो इ० स०, एवं एयाइंबारस एगिदियमहाजुम्मसयाई भवंति / सेवं भंते! रत्ति ॥सूत्रम् ८५९॥पंचतीसइमंसयंसम्मत्तं // 35 // जहन्नेणं एक्कं समयं त्ति जघन्यत एकसमयान्तरं सङ्खयान्तरं भवतीत्यत एकं समयं कृष्णलेश्यकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रिया भवन्तीति / एवं ठिईवि त्ति कृष्णलेश्यावतां स्थितिः कृष्णलेश्याकालवदवसेयेत्यर्थ इति // 2 / / / / 859 // पञ्चत्रिंशं शतं वृत्तितः समाप्तम् // 35 // व्याख्या शतस्यास्य कृता सकष्टं, टीकाऽल्पिका येन न चास्ति चूर्णिः / मन्दैकनेत्रो बत पश्यताद्वा, दृश्यान्यकष्टं कथमुद्यतोऽपि॥१॥ // इति श्रीमच्चन्द्रकुलनभोनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यवर्यविहितविवरणयुतं श्रीमद्भगवतीवृत्तौ पञ्चत्रिंशं शतकं समाप्तम् // // 1619 //