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________________ नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-३ | // 1094 // देवागमविउव्वे // 2 // सुबहु पिवीलियाओ बाहा जवावि काइयसमाही। अन्नो य उढिओ ह साहू बेंती तओ गाढं // 3 // 4. चतुर्थअहयं च काइयाओ बेई अच्छसुपरिट्ठवेमित्ति / निग्गए निसिरे जहियं पिवीलिया ओसरे तत्थ // 4 // साहू य किलामिज्ज मध्ययनम् पपिए ता वारिओ य देवेणं / सामाइए निसिद्धो मा पिय देवो य आउट्टो॥५॥ वंदित्तु गओ बितियं तु दिट्ठिवाइयं खुड्डए उ | प्रतिक्रमणं, 4.1 ध्यानएक्को। तेण ण पेहिय थंडिल्ल काइया लोभओराओ॥६॥ थंडिलं न पेहियंती न वोसिरे देवयाएँ उज्जोओ। अणुकंपाएँ कओ शतकम्। से दिट्ठा भूमित्ति वोसिरियं // 7 // एसो समिओ भणिओ अण्णो पुण असमिओ इमो भणिओ। सो काइयभोमाई एक्के सूत्रम् नवरि पडिलेहे॥८॥ नवि तिण्णि तिण्णि पेहे बेड़ किमित्थं निविट्ठो होजुट्टो / काऊण उट्टरूवं च निविट्ठा देवया तत्थ // 9 // 20(21) | पडि०पंचहिं सो उढिओ य राओ तत्थ गओ नवरिपेच्छए उट्टे / बितियं च गओ तत्थवि ततियंपि य तत्थवि णिविट्ठो॥१०॥ तो अण्णो कामगुणेहिं उठविओ तेसुंपि तहेव देवया भणिओ। कीस न वि सत्तवीसं पेहिसी? सम्म पडिवण्णो॥११॥ उच्चाराई एसा परिट्ठावण इर्यासमित्यादि वण्णिया समासेणं / बेइ किमेत्तियं चिय परिठप्पमुआहु अण्णंपि?॥१२॥ भण्णइ अण्णंपत्थी किह तं किए वा परिठ्ठवेयव्वं / दृष्टान्ताः। - देवागमो विकुर्वति // 2 // सुबह्नयः पीपिलिका बाधा जवादपि कायिकीसमाधेः / अन्य उत्थितः साधुर्ब्रवीति ततो गाढम् // 3 / / अहं च कायिकयाऽर्तों ब्रवीति तिष्ठ परिष्ठापयामीति / निर्गतो व्युत्सृजति यत्र पिपीलिका अवसर्पन्ति तत्र / / 4 / / साधुश्च क्लाम्यते प्रपीतवान् तदा वारितश्च देवेन। सामायिके निषिद्धो मा पा देवश्वावर्जितः। B5 // वन्दित्वा गतः द्वितीयं दृष्टिवादिकं क्षुल्लकस्त्वेकः / तेन न प्रेक्षितं कायिकीस्थण्डिलं लोभतो रात्रौ // 6 // स्थण्डिलं न प्रेक्षितमिति न व्युत्सृजति देवतयोद्योतः। 8 अनुकम्पया कृतः तस्य दृष्टा भूमिरिति व्युत्सृष्टम् / / 7 / / एष समितो भणितोऽन्यः पुनरसमितोऽयं भणितः / स कायिकभूम्यादि एकैकं परं प्रतिलिखति // 8 // नैव त्रीणि : त्रीणि प्रत्युपेक्षते ब्रवीति किमिहोपविष्टो भवेदुष्ट्र ? / कृत्वोष्ट्ररूपं चोपविष्टा देवता तत्र // 9 // स उत्थितश्च रात्रौ तत्र गतः। परं प्रेक्षते उष्ट्रम्। द्वितीयं च गतस्तत्रापि : // 1094 // तृतीयमपि तत्राप्युपविष्टः / / 10 // ततोऽन्य उत्थापितस्तेष्वपि तथैव देवतया भणितः। कथं नैव सप्तविंशति प्रत्युपेक्षसे? सम्यक् प्रतिपन्नः // 11 // उच्चारादीनामेषा . पारिष्ठापनिकी वर्णिता समासेन / ब्रवीति किमेतावदेव पारिष्ठाप्यमुताहो अन्यदपि // 12 // भण्यतेऽन्यदप्यस्ति कथं तत् क्व वा परिष्ठापयितव्यम्?।
SR No.600438
Book TitleAvashyak Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages508
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size35 MB
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