________________ मन्यमानेति सा तस्य चैकदा गलतोऽध्वनि // वेत्रिभिर्वार्यमाणापि स्वहस्तेन शिरोस्पृशत्॥३७२॥ तदासावप्यति क्रुद्धोविष्णुर्विष्णुरिति स्मरन् // स्नानार्थं लोकदृष्टोसौ प्रत्यावृत्तस्तदा ततः // 373 // वृतान्तं तमथ श्रुत्वा राजाऽपि कुपितो भृशम्॥ तां च वेश्यां समाहृय सूपालंभं स दत्तवान्॥३७४॥ वेश्योवाच महाराज तापसः कपटे पटुः॥ प्रत्ययो भवतां नो चेत् परीक्षां कुरुत स्वयम् // 375 // तयेत्थं प्रेरितो राजा तत्स्वरूपं विलोकितुम् // तापसं स्वगृहे तं च पारणाय न्यमन्त्रयत् // 376 // महताडंबरेणाथ तापमं तं समागतम् // राज्ञी स्वर्णासनं दत्वा लग्ना भोजयितुं क्रमात् // 377 // पक्वान्नं परिवेष्याथ राज्ञी तस्य पुरःस्थिता // करोति वातप्रक्षेपं व्यजनेन प्रहर्षिता // 37 // राज्ञी मनोरमा दृष्टा तावत्तद्रूपमोहितः // कामाहिदष्ट एवासौ संजातस्तापसोऽपि सन् // 379 // | नामापि स्त्रीति संहादि विकरोत्येव मानसम् // किं पुनदर्शनं तस्या विलासोल्लसितभ्रुवः // 380 // उत्थितस्तापसस्तस्मादथ विस्मृतभोजनः // भोगार्थ प्रार्थयद्राज्ञीं तदा रुष्टा नृपप्रिया // 38 // | ब्रूते दूरं द्रुतं याहि त्वमितस्तापसाधम // पापात्मन् कुत आयातो मुखं दर्शय मा तव // 382 // | राझ्या तिरस्कृतः क्रोधादपि काममदान्वितः // न विरमत्यसौ पापी यतः स्वदुष्टचेष्टितात् // 383 //