________________ श्री सदेववत्स चरित्रम् पुरमध्यस्थितस्याथ प्रभुवत्सस्य भूपतेः // पुरः केनापि भट्टेन वर्धापन्या निवेदितम् // 25 // हे देव तव पुत्रोऽत्र सदयवत्सभूपतिः // प्रौढसैन्येन संयुक्तः समागतो महाबलः // 26 // तस्मिंश्च युध्यमाने ते वैरिणस्ते बहिः स्थिताः // सर्वे पलायिताः सन्ति तच्छ्रुत्वा मुदितो नृपः 27 ततः शीधं स्वपुत्रस्य मिलनायोत्सको नपः // आदिदेश स्वमंत्र्यादीन तत्प्रवेशमहोत्सवे // 28 // पूर्वमेव स्वयं तस्य मिलनाय पुरावहिः॥ निर्गतो भूपतिश्चाथ बहुस्नेहसमाकुलः // 29 // क्षणमात्रं विलंबोऽपि बहुत्कण्ठावतां नृणाम् // यतो वर्षायते नूनं तच्च स्वानुभवाश्रयम् // 30 // अन्योन्यमिलने हृष्टहृदयौ तौ ततः सुतौ // तुरंगाभ्यां समुत्तीर्याश्लेषवन्तौ बभूवतुः // 31 // E किं चन्दनैः सकपूरै स्तुहिनैः शीतलैश्च किम् // सर्वे ते पुत्रगात्रस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम // 32 // | अमृतस्य प्रवाहैः किं कायक्षालनसंगतैः // चिरात्पुत्रपरिष्वंगो योऽसौ मूल्यविवर्जितः // 33 // धृतमांगल्यसद्वेषाः वत्सावलोकनोत्सुकाः॥ पौराः पौरपुरंध्यश्च सुवर्णपात्रपाणयः // 34 // पुष्पमालाक्षतैः कृत्वा मंगलं तस्य सन्मुखम् // समाजग्मुर्महाहर्षात् गीतवादित्रसंयुताः // 35 // पंचवाद्यनिनादेन चोत्कीर्णिकृतदिग्रजम् // अकार्षीन्नृपतिश्चापि तत्प्रवेशमहोत्सवम् // 36 //