________________ राज्ञाथ क्षत्रियः पृष्ट स्तृतीययामयामिकः ! सोऽवदन्मम वृत्तांतं पृच्छाहूय सुतास्तव // 75 // K तदा राज्ञापि पुत्राणा माकारणाय सेवकाः॥ प्रेषितास्ते समागत्य प्राहुस्तं विनयान्विताः // 76 // स्वामिन् सर्वेऽपिते पुत्रा अद्यापि निद्रिता गृहे // अथोत्थाय समानीताः सभायां ते नृपाज्ञया // 77 // K राज्ञा पृष्टं कथं वत्सा यूयमद्यापि निद्रिताः // ततस्तं क्षत्रियं दृष्ट्वा प्रोक्तं तैस्तात संशृणु // 7 // वीरेणेतेन भूतेभ्यो जीवंतो मोचिता वयम् // राज्ञोक्तं चाथ हे वत्सा तद्धेतुं वदताधुना // 79 // तदा सर्वेऽपिते प्रोचु भूतानां तमुपद्रवम् // एवं स्वपुत्रपुत्रीणां हृष्टोऽनूज्जीवनान्नृपः // 8 // राजोवाचाथ हे सन्या राक्षसा देवयोनयः // श्रयंते मानवै स्तर्हि म्रियंते मारिताः कथम् // 1 // न ते कावलिका हारास्तथा भूतादिदेवताः // ते क्षिप्रचटिकायास्तु कथं कुर्वन्ति रंधनम् // 82 // - कुर्वन्ति व्यंजनार्थ ते जनानां हननं कथम् // तच्छृत्वा मंत्रिणः प्राचुरुद्भूतज्ञानचक्षुषः // 83 // जैनेन्द्रवचनं राजन् श्रुतं तस्य प्रकाशतः॥ ज्ञातसम्यक्वरूपाः स्मस्ततो बुद्धया विविच्यते // 84 // ये देवयोनयस्ते न नियंते मारिता नरैः // तथा क्षिप्रचटिकाया रंधनं क्रीडनं हि तत् // 85 // ये च भूता मनुष्याणां मांसभक्षणलोयुपाः॥ नानाविद्याबलेनैव ये प्रौढरूपधारकाः // 86 //