________________ श्रीअमम // 6 // जिनचरित्रम् रहस्य भिन्नमिति ज्ञाने कीरस्याध्यात्म विचारणा चिरात्कीरवैरनिर्यातने मम // 24 // ऊचे च व्यथते शीर्ष कुतोऽप्यम्बाऽद्य मेऽधिकम् / स्थास्यामि तद् गृहे यात यूयं तु सपरिच्छदाः | | // 15 // रक्षिष्याभि प्रसंगेन स्थिताऽत्र गृहमप्यहम् / अधृत्या वा विवाहान्तात् कोऽपि नागन्तुमर्हति // 26 // अथैत्य पत्न्या तत्रार्थे | कथिते तां धनः पुनः। आकार्य शिष्ट्वा रक्षार्थ जगाम सपरिच्छदः // 27 // गते तस्मिन् क्षणाक्षारघटं पार्श्वे विधाय सा। पञ्जरा| सहसाऽऽकृष्य कीरं क्रूरा करेऽकरोत् // 28 // हा धिक् किमेतदित्यस्य भयाद्विमृशतो स्यात् / पिच्छमुत्पाटयामास क्षते क्षारं ददौ च सा // 29 / / ऊचे च रेरेऽनात्मज्ञ ! पशुपाश दुराशय / पाप्मन्ननुभवेदानी स्वदुर्नयतरोः फलम् // 30 // दुरात्मंस्तव पाण्डित्यपा| ण्डिमा भुवि गीयते / हन्यमानं तदात्मानं रे पक्षिन् रक्ष रक्ष तत् // 31 // अथ दध्यौ शुकः शंके तद्रहस्यमभिद्यत / तद्विपाकोऽय| मुत्तस्थे हन्ति वैरं चिरादपि // 32 // रे जीव ! प्राग्भवे क्लीबोऽभूः शीर्षकलुश्चने / सर्वांगरोमोत्पादं तेऽधुना खेपा करिष्यति // 33 // | क्षारं च दास्यते किश्च तस्मादपि सुदुःसहम् / प्रयोक्ष्यते वचाक्षारमुयूद्योयूय दुःकृतम् // 34 // आत्मन् ! दुःखान्यदीर्णानि सहख स्ववशोऽधुना। मा बलाजन्मसु परेष्ववशः साहयिष्यसे // 35 // नरकेष्वन्वभूर्यानि दुःखान्यात्मन्ननारतम् / तेषां कोटितमेऽप्येतन्न | भागे किमु खिद्यसे ? // 36 // देहेऽतिर्यदि का पीडा तवात्मस्तत्र शाधि नः / अन्यस्त्वमन्यद् वपुरित्यन्तस्तत्त्वं परामृश // 37 // ये | | साहाय्यं प्रपद्यन्ते दुःकर्मक्षपणेषु ते / ते प्रत्युत प्रसादास्तिवात्मन्नपकारकाः // 38 / / बध्नासि स्म हसन् कर्माण्यात्मन्नुच्चेर्मुदा तदा / दीनो रुदन्निदानी तु मृढ ! तान्यनुभाव्यसे // 39 // स्वयंकृते स्वयं चाप्तोदये रे जीव ! कर्मणि / मुधा निमित्तमात्राय परस्मै | किमु ? कुप्यसि // 40 // यद्वैवंभावितात्माऽपि सोढुं शक्ष्यामि न व्यथाः। एवमा मृतानां च भवभ्रमणमेधते // 41 // तत्कुर्वे धा_|माधाय जीवितोपायमात्मनः / असौ तु कालहरणादृते नान्योस्ति कश्चन // 42 // कालक्षेपे यदि पुनः कुतश्चित्कश्चिदापतेत् / चिन्त // 6 //