________________ जिन श्रीश्रमम गुरोः पार्श्वे श्राद्धधर्म परे पुनः॥९४॥ नलेन सह तेऽद्यापि भोग्यं कास्ति तिष्ठ तत् / इति व्रतोद्यतां भैमी तदा सूरिबोधयत् | // 95 // अथोदिते रवौ सरिरुत्तीर्याद्रेजनैः सह / आगत्य तापसपुरं चैत्यदेवानवन्दत // 96 // तत्र सम्यक्त्वमारोप्य पौराणां स यथा॥२५४॥ विधि / अन्यत्र व्यहरनकस्थानस्थाः स्युर्महर्षयः // 17 // भैमी मलिनवस्त्राङ्गधरा धर्मपरा सती / भिक्षुणीवात्यगात्तत्र सप्तवर्षी गुहा स्थिता // 98 // पान्थ एकोऽन्यदाऽऽगत्य द्वारस्थस्तामदोऽवदत् / मयाऽमुकप्रदेशे ते प्रियो दृष्टोऽद्य सुंदरि ! // 99 // मृगीव गीतं तच्छब्दं श्रुत्वा साप्यन्वगाद् द्रुतम् / अकुंठा द्रयितोत्कंठा हठाद्वा हेठन्ते स्त्रियः॥९००।। स निकारणविद्वेषी मूतिर्वा पूर्वकर्मणः। | अतिदूरं गुहायास्तामाकृष्यैवं तिरोदधे // 1 // सा तं पान्थं न चाद्राक्षीदत्याक्षीत्वां गुहामपि / अभूदुभयतो भ्रष्टा महाकष्टास्पदं हहा | // 2 // प्राप्ता साऽथ महारण्ये ऽगच्छदस्थादुपाविशत् / भूमौ व्यालोठीद् व्यलपद् अहिलेव रुरोद च // 3 // साऽभुक्त दैवमज्ञात्वा नलेन | सह यत्सुखम् / कुपितेनेव तेनैतदुःखं दखोदगाल्यत ॥४॥चिंतयन्ती गुहामेव चिंताचांतमतिश्च सा / अचालीत्तत्पथैनैव सुदती रुदती lad| ततः / / 5 / / अंतराले करालेन मुखेनात्तुं समुद्यताम् / मारिवद्यमपत्नीबद्भीमां सैक्षत राक्षसीम् // 6 // तां प्रोचे भीमसूरस्मि चेत्सुदर्शन-1 | धारिणी। दैत्यारिमूर्तिवत्तत्वं हता तेनासि राक्षसि ! // 7 // नल एवास्ति मच्चित्ते भर्ता वीराग्रणीर्यदि / तत्तस्य सिंहनादेन हता रे | याहि राक्षसि // 8 // मत्तोऽधिकप्रभावेयमिति भीतेव राक्षसी / भैमीं नत्वा ययौ शीलवत्याः सत्यगिरो यतः // 9 // साध्ये यान्ती | वातजाततरंगानंबुसैकताम् / दृष्ट्वा गिरिनदीं भेजे हरिणीव तृषाकुला // 10 // उदन्यती दवदंती मरुभूमाविवाभितः। तस्यामनंभसि भ्राम्यन्त्यासदद् वारि न क्वचित् // 11 / / शुष्कामृतकलाऽवादीत्सा नदीय क्षणार्द्धतः / उत्कल्लोलजला भूयान्ममशीलप्रभावतः॥१२॥ उक्त्वेति पाणिघातेन मांत्रिक्येव तया हता। विस्तारिवारिवीचिः सा सद्यो नद्योधभूरभृत् // 13 // जितेव तस्याः शीलेन या गंगा चरित्रम् सप्तवर्षानन्तरमन्य कपटाचालिता भैमी शीलप्रभावस्वरूपम् सग tum // 254 //