________________ श्रीअमम जिन | चरित्रम् कदम्बनृपं // 234 // प्रति दूतप्रेषणम् // 18 // वैदर्भीमिव सर्वांगसुभगामनुरागिणीम् / शक्तः खरं भुनक्ति स्म भरतार्द्धभुवं नलः // 19 // प्रौढदोःस्तंभदंभोलिक्षतकोटीर| पर्वताः / सुखं सिषेविरे नम्रशिरसस्तं नरेश्वराः // 20 // पराक्रमेण धिषणाक्रमेण च निरर्गलम् / नलं ज्ञात्वा मंत्रयेतां शक्रवाचस्पती अपि // 21 // सोऽपृच्छन्मंत्रिणोऽन्येयुः सेवाऽऽयातान् क्रमागतान् / भूमि पित्राऽपितामेव शासि किं ? वाऽधिकामहम् // 22 // | तेऽशंसन् भरतस्या त्रिभागोनं भवत्पिता / बुभोज परिपूर्ण तु भवानित्यधिकस्ततः // 23 // कदम्बः किन्तु नाज्ञां ते मन्यते शिशिर स्थितेः / प्रौढो द्वियोजनशतीप्रांते तक्षशिलापुरे // 23 // प्रतापभानोस्ते स्फूर्ति दिक्चक्रे कामतो यदि / स्तोकं च्छादयितुं धावत्य| सावेवाभ्रलेशवत् // 25 // उपैक्षि देवरुद्धेन त्वयायं प्राग्महाबल / अधुना तु धुनानेन मूलादुच्छेत्स्यते सुखम् // 26 // ततः प्रथमतो दतो दक्षिणः सामशीतलः / तसिनियुज्यतां नीतिमुचिता बलिनामपि // 27 // मंद मंद स चेत्तस्य युक्त्याऽपक्रामति स्वयम् / ततो युक्तमथाभित्रामति प्रौढिं प्रकाशयन् // 28 // तदा प्रभंजनेनात्मबलेनोइंडवृत्तिना।क्रव्यादिग्जन्मनोत्पाट्य नयेनिर्नामताममुम् // 29 // | युग्मम् // मंत्रिमंत्रादिति नलः ससैन्यं दूतमादिशत् / कदम्बमूचिवान् सोऽपि गत्वा स्वामिबलोद्धतः // 30 // समित्प्रदीप्त यच्छौर्य| वढेधूम्यायते नमः / मेरुळलायते भानुः स्फुलिंगकणिकायते // 31 // विभिद्य मंडलं सौरमपि यत्सैन्यधृलिभिः। सुभटीभिरिवाक्रांतः सहस्राक्षोऽपि रोदिति // 32 // तं मम स्वामिनं शक्रसभागीतबलवनम् / आराधय धय स्वैरं निज कांताधरामृतम् // 33 // मन्मुखे कुलदेव्यस्तेऽवतीर्याहुवचो हितम् / कुर्या नलाज्ञां माऽस्माकं तेजः स्वस्य च नाशयेः॥३४॥ ललाटे त्रिवलीर्वक्त्रेऽधरं खगवरं करे। युगपन्नतयन् कोपात्कदम्बोऽप्यभ्यधादिति // 35 // नलस्ते विकलः स्वामी स्वयं यदि विचेतनः / पार्श्वे तत्तस्य नो संति सकलाः किमु मंत्रिणः // 36 // येतं निरर्गलं मां प्रत्युच्छृखलखलोक्तिकम् / न शिक्षयन्ति त्वां चात्रादिशन्तं वारयन्ति न // 37 // कौलीन्या सर्ग-६ // 234 //