________________ // 209 // कनकवत्य हंसेन कथिता वाता मरंदाहारशुद्धया। तामवोचस्मोपलदलैर्मृणालीशकलैरिख / थापा चिन्तया तावदेतेनाहमापारस्य नुकुर्वाणः स्वेन नेत्रांहिचचुना // 44 // हस्यमानोपि हारेण सृष्टो ज्योत्स्नाभरैरिव / गतिशिक्षामतिर्मन्ये हंसोऽकस्माद् दिवोऽपतत् // 45 // युग्मम् / / कल्याण किंकिणीक्वाणसंवरिंगतकलस्वनम् / निजे कराब्जे तं न्यस्य सा दध्याविति विस्मयात // 46 // विद्याधरस्य राज्ञो वा क्रीडापात्रमयं ध्रुवम् / कस्यापि भावी पक्षीति भूषणान्येव शासति // 47 // अलं वा चिन्तया तावदेतेनाहमपि स्वयम् / | क्रीडिष्यामि यतः पुण्यैरीदृग्वस्तुसमागमः // 48 // सृष्टमर्कोपलदलैमृणालीशकलेरिख / यावत्पंजरमानाय्य सा तं क्षेप्तुं प्रचक्रमे // 49 // तावत्स हंसः कमलमरंदाहारशुद्धया / तामवोचन्मय॑वाचा चमत्कारं परं नयन् // 50 // यः साक्षात्सुकृतैर्जातो योगात प्रत्युत | मक्तिदः। स कथं ? बध्यते हंसस्तत्त्वज्ञासि विचारय // 51 // किं च दृष्टोऽपि कल्याणशंसी हंसोगिनां भवेत / किमुच्यते ? स्वयं प्राप्तः पाणिप्रणयितां पुनः॥५२॥ राजपुत्र्यवदद्यत्त्वं हंस ! मानुषभाषया / ब्रवीषि तेन मे चित्रं शुभशंसी तु यद्भवान् // 53 // एतेन | || कौतुकस्यापि मलिकास्ति ततो द्रुतम् / काल्याणिनेय कल्याणं वद वं वदतांवर // 54 // युग्मम् // हंसोऽप्याख्यत्कौशलस्य पुर्यां विद्या धरेशितुः / कोशलायां परिभ्राम्यन्नेकदाऽसि गतः शुभे!॥५५॥ तस्यां व्योमस्थितोऽद्राक्षं तेजोजितरविच्छविम् / किमेतदिति संभ्रा-| न्तस्तज्ज्ञातुं यावदापतम् // 56 // तावत्पुरो नरं तेजःपूरिताम्बरमैक्षिपि / तदंतिके कोशलस्य तनयां च सुकोशलाम् // 57 // युग्मम् // सा दीपिकेव तस्यान्ते रुपेण द्युतिमत्यपि / नाशुभत् किन्तु हीनश्रीरेवाभात्प्रत्युताधिकम् // 58 // ततो हर्षविपादाभ्यामचिन्तयमहं तदा। | श्लाघ्याऽसौ मेदिनी यस्यां नरोऽयं मुकुटायते // 59 // स्त्रीमाणिक्येन हीनस्तु विधिना विदधे हहा / यद्वानुरुपघटना स्वस्य ख्यातैव मूर्खता // 60 // युग्मम् // तस्य तेजोनिधेर्युनो रुपं लोकोत्तरं यथा / तथा तवैव कल्याणि ! विश्वस्त्रैणशिरोमणेः // 61 // जाने कल्पद्रुणा | | कल्पवल्लीमिव विधिर्यदि / त्वां तेन योजयेत्तर्हि स भवेत् सफलश्रमः // 62 // श्रुखेति सा मरालं तमुवाचोत्कंठयाकुला / दंतांशुभिः | // 209 //