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संवेगरंगसाला
श्रुतज्ञानस्य माहात्म्यम् ।
॥६०१॥
सक्का सुएण णा, उड्दं च अहं च तिरियलोगं च । ससुराऽसुरं समणुयं, सगरुलभुयगं सगंधव्वं ॥७८०३॥ बंध मोकूख गइमाऽऽगई च, जीवाण जीवलोगम्मि । जाणंति सुयसमिद्धा, जिणसासणभावियमईया ॥७८०४॥ सूई जहा ससुत्ता, न नासई कयवरम्मि पडिया वि । जीवो वि तह ससुत्तो, न नासइ गओ वि संसारे ॥७८०५।। सूई जहा असुत्ता, नासइ पडिया कयारमज्झम्मि । पुरिसो वि तह असुत्तो, नासइ संसारगहणम्मि ॥७८०६॥ जह आगमेण वेजो, जाणइ वाहिं चिगिच्छिउँ निउणो। तह आगमेण नाणी, जाणइ सोहि चरित्तस्स ॥७८०७॥ जह आगमपरिहीणो, वेजो वाहिस्स न मुणइ तिगिच्छं । तह आगमपरिहीणो, चरित्तसोहिं न याणाइ ॥७८०८।। तम्हा पुव्वं पुवरिसि-परूवियम्मि अप्पमत्तेहिं । उज्जोओ कायव्यो, नरेहिं मोक्खामिकंखीहि ॥७८०९॥ मेहा होज न होज व, जं सा कम्मकखओवसमसज्झा। उझोओ कायव्यो, नाणं अमिकंखमाणेहि ॥७८१०॥ । जइ वि य दिवसेण पयं, पढेइ पकखेण वा सिलोगई। नाणं सिक्खेउमणो, तह वि हु मा मुंच उजोगं ॥७८११।। पेच्छह ता अच्छेरं, अणऽच्छमाणीए अच्छमाणस्स । पासाणस्स बलवओ, खओ को वारिधाराए ॥७८१२।। तह सीयएण मउयएण, जोगं अमुंचमाणेण । उदएण गिरी मिन्नो, थेवं थेवं वहंतेण
॥७८१३॥ १अपरिजिएण मणूसो, बहुणा वि सुएण अपरिसुद्धेण । खलिएण संकिएण य, जाणुयजणहासओ होइ ॥७८१४।। थेवेण वि अखलियसुद्धएण, थिरपरिचिएण गहियत्थो। सज्झाएण मणूसो, अलजियाऽणाउलो होइ ॥७८१५॥
१ अपरिचितेन ।
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