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________________ संवेगरंगसाला जमाले लान्तकस्वर्गे उत्पत्तिः पापस्थान वर्णनममाप्तिः ॥५०३॥ जह कजमाणयं कड-माऽऽह पहू भुवणदिणयरो वीरो। तह संथरिजमाणो, संथरिओ एस किमजुत्तं ॥६५१६॥ एवं पि तेहि भणिओ. मिच्छामिनिवसनियसम्मत्तो । कडमेव कडं ति कुपकूख-तरलिओ सो चिरं कालं ॥६५१७॥ विप्पडिवन्नो तइलोक-बंधुणो विहियदुक्करतवो वि। विहरित्था वसुहाए, बुग्गाहिंतो जणं मुद्धं ॥६५१८॥ किचनियहियो नियहत्थेण, दिकिखया सइ सयं च सिक्खविया। पियदंसणा वि अंजा, जमालिपकवं अणुसरंती ॥६५१९।। विप्पडिवन्ना मिच्छत्त-दोसओ अहह ! सा वि जयगुरुणो। पञ्चकखभुवणभक्खर-भूयस्स वि बद्धमाणस्स ॥६५२०।। कयमिन्हेिं पसंगेणं, विहलीकयसंजमो अह जमाली । मरिउ लेतयकप्पे, किब्बिसियसुरो समुप्पण्णो ॥६५२१।। ते चरणगुणा सो नाण-पयरिसो तं च तस्स सच्चरियं । एकपए च्चिय णटुं, धिरऽत्थु मिच्छाभिमाणस्स ॥६५२२।। दे! पेच्छ पेच्छ मिच्छत्त-पडलपच्छाइयाण जंतूण । वत्थु पि अवत्थुत्तेण, तकखणे चेव परिणमइ ॥६५२३।। सम्मत्ताऽऽगुणसिरी, सा तस्स तहाविहा जइ न हुता। मिच्छत्ततमंऽतरिया, न याणिमो तो किमऽवि हुतं ।।६५२४।। इय मुणिय विवेयाऽमय-पाणपयोगेण मणसरीरगयं । मिच्छत्तगरलमेयं, वमसु तुमं सव्वहा वच्छ! ॥६५२५।। मिच्छत्तगरलमुक्को, ववगयनिस्सेसतब्वियारो य । सुत्थीभूओ सम्मं, पत्थुयमाऽऽराहणं लहसु ॥६५२६।। एवं मिच्छादसण-सल्लमिमं कहियमेयकहणाओ। कहियाणि असेसाणि वि, अट्ठारस पावठाणाणि ॥६५२७।। एकेकमऽवि इमेसि, पावट्ठाणाण इय विवागकरं। जो उ विवागो तेसि, समवाए तत्थ कि भणिमो॥६५२८॥ १ विवाहकरो पाठां । ' वन्धु पि गई, धिरऽत्यु मिरो समुप्पणो ॥५०३॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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