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संवेगरंगसाला
नृपीभूतनन्देन धर्मरुवेः उपलक्षणार्थ सार्धश्लोकेन समस्यापदरचना ।
॥४७४॥
साहू वि सत्थसहिओ, तेण पएसेण कहवि वच्चतो। दिट्ठो सीहेण तओ, उज्झियसत्थो मुणि हंतु ॥६१३२॥ सो इंतो निद्दड्ढो, मुणिणा वाणारसीए णयरीए । ताहे बडुगो जाओ, साहू वि य कहावि तुडिजोगा॥६१३३॥ तं चेव पुरि पत्तो, तो से भिक्खट्टया पविट्ठस्स । बडुगेणं आरद्धा, धूलिक्खेवाऽऽइउवसग्गा ॥६१३४॥ तत्थ वि पुवठिईए, दइढो जाओ य तीए नयरीए । राया मुणी वि सुचिरं, विहरिउमऽन्नत्थ आरद्धो॥६१३५।। इयरो पुण रजसिरि, अणुभुंजतो सरित्तु नियजाई । भयभीओ संचितइ, जइ सो मारेइ एत्ताहे ॥६१३६॥ ता होइ महाऽणत्थो, टालिजामि य विसिट्ठसोक्खाओ। जाणामि जइ तमहं, कहं पिता लहु खमावेमि ॥६१३७॥ तो तन्नाणनिमित्तं, तेण नरें देण पुव्वभववित्तं । रइङ' सइढसिलोगेण, गेहबाहिम्मि उन्भवियं ॥६१३८॥ जहा- "गंगाए नाविओ नंदो, सभाए घरकोइलो। हंसो मयंगतीराए, सीहो अंजणपव्वए ॥६१३९॥
वाणारसीए बडुओ, राया तत्थेव आगओ ति" जो किर एयं पूरइ, राया रजस्स देई से अद्ध । आघोसियं च एवं, पुरीए तो सव्वपुरिलोगो ॥६१४०॥ निअमइविहवाणुरूवेण, विरइऊणुत्तरद्धमऽणुसरइ । रायाणं नवरं नेव, तेण से पच्चओ होइ ॥६१४१॥ अह धम्मरुई सुचिरं, हिडिय अन्नत्थ आगओ तत्थ । वुत्थो आरामम्मि, सुओ य आरामिओ तम्मि ॥६१४२॥ पुणरुत्तमुच्चरंतो, "गंगाए नाविगाऽऽइयपयाई" । भणिओ कीस इमाई, पुणो पुणो वाहरसि भद्द! ॥६१४३॥ कहिओ सव्वो वि हु तेण, वइयरो जोणिऊण परमऽत्थं । ताहे मुणिणा तस्संऽति-मद्धमाऽऽपूरियं एवं ॥६१४४॥
॥४७४॥