SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवेगरंगसाला नरसुन्दरनृपस्य संसारस्वरूप चिन्तनम् । ॥४०१॥ अप्पाणं सुचिर अरिऊणं, तं कि पि सोगसंभार। हिययम्मि उव्वहंती, नरसुंदरराइणा बहुसो ॥५१६५।। वारिज्जती वि बहु-प्पयारवयणेहि भत्तुणा समगं । जालाऽऽउलम्मि जलणम्मि, निवडिया सा पयंगि व्व ॥५१६६।। अह संवेगोवगओ, गया नरसुदरो विचिंतेइ । अविचिंतणीयरूवा, धिद्वी एसा भवस्स ठिई ॥५१६७।। जत्थ सुही वि हु दुहिओ, निवो वि सेरो सुमित्तमऽवि सत्तू । संपत्ती वि विवत्ती, परिणमइ निमेसमित्ते वि ॥५१६८।। कहमऽहुण च्चिय तीए, चिरकालाओ समागमो जाओ। कहमिन्हेिं पि विओगो, घिरऽत्थु संसारवासस्स ॥५१६९।। मन्ने करिकन्नसुरिंदचाव-तडिचावलेण निम्मवियं । वत्थु समत्थं एत्थ, तेणं खणदिदुनटुं तं ॥५१७०।। एवंविहे य कहमिह, खणमऽवि निवसंति मुणियपरमत्था । वीसत्था सगिहेसु, अहह ! महा घिडिमा तेसि ।।५१७१।। इय संसारविरत्तो, स महासत्तो सुयं निययरज्जे । ठविऊण कयाऽणसणो, सुहम्मि भावम्मि वतो ॥५१७२।। सव्वन्नुसामणम्मि, बहुमाणमऽपुन्चमुव्वहंतो य । मरिऊण भलोए, भासुररूवो सुरो जाओ ॥५१७३।। तत्तो य उत्तरोत्तर-विसोहिवमओ स कइ वि भवगहणे । नरसुरसिरिमऽणुभविउ, परमसुहं सिवपयं पत्तो ॥५१७४।। एवमऽवंतीवइणो, रन्नो नरसुदरस्स वि य चरियं । जं पुच्छियमाऽऽसि तए, नरवर! तमऽसेसमऽवि सिटुं ।।५१७५।। सोचा य इमं पडिवकख-पक्खनिक्खित्तअसुहकायव्यो। तह कह वि पयट्टसु सूर-तेय ! जह सूरतेओ सि ॥५१७६।। एवं गुरुणा कहिए, राया परमुल्लसन्तसंवेगो। देवीए धारिणीए, सह पन्चइओ गुरुसमीवे ॥५१७७॥ अहिगयमुत्तऽत्थान य, पइदिणक्ड्ढ'तसुद्धभाकाण । अइआरकलंकविमुक्क-साहुकिरिआरइपराण ॥५१७८।। IN I ॥४०॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy