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________________ संवेगरंगसाला अनुशास्तिद्वारे महिलानां स्वरूपम् । 44 ॥३४५।। अविहियपरियम्मो सम्मं, को नाम नामि तरइ । बम्महसबरमरोहे, दिद्विच्छोहे मयच्छीण ॥४४३८॥ घणमालाओ व समुन्नमंत-सुपओहराओ वड्दति । मोहविसं महिलाओ, गोणसगरलं व पुरिसस्स ॥४४३९।। परिहरह तहा तासि, दिदि दिद्विविमस्स व अहिस्स । पायं तीए निवाओ, चरित्तपाणे हणइ जम्हा ॥४४४०॥ महिलासंसग्गीए, अग्गीए घयं व अप्पसारस्म । मयणं व मणो मुणिणो त्रि, हंत सिग्घ चिय विलाइ ॥४४४१।। जइ वि परिचत्तसंगो, तवतणुयंगो तहा वि परिवडइ । महिलासंसग्गीए, कोसाभवणुसिओ ब्ब रिसी ॥४४४२॥ गुरुविहियथूलभद्दोव-वृहणुप्पन्नमच्छरुच्छाहो। किर उवकासघरम्मि, वासावासम्मि वट्टन्तो ॥४४४३॥ सभूयविजयसिस्सो, दुक्करतवसत्तिसमियमयराओ। सीलोवरकूखणट्ठा, उबकासाए सुवेसाए. ॥४४४४॥ सवियारहसियभासिय-चकमणद्धच्छीपेच्छियाऽऽइहिं । तह विहिओ लीलाए, 'साऽऽयत्तो जह लहुँ जाओ ॥४४४५।। अपुव्वसाहुसयसहस-मुल्लकंबलगदाइनरवइणो। पासम्मि पेसियो रयण-कवलस्सोवलंभट्ठा ॥४४४६।। इय संजमजीवियहरण-बद्धलक्खाण विहियदुकूरवाण । परमत्थचिंतणाए, अरीण नारीण न विसेसो ॥४४४७॥ तहासिंगारतरंगाए, विलासवेलाए जोव्वणजलाए । पहसियफेणाए मुणी, नारिनईए न २वुमन्ति ॥४४४८|| विसयजल' मोहकल', विलासबिब्बोयजलयराऽऽइन्न । मयमयरं उत्तिन्ना, तारुममहऽनवं धीरा ॥४४४९।। १ साऽऽयत्तो = स्वायत्तः = स्वाधीनः । २ वुम्भन्ति = उहान्ते । ॥३४५॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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