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संवेगरंगसाला
शJA
सत्त्वादिभावनानां स्वरूपम् एकत्वभावनायां पुष्पचूलदृष्टान्तः।
॥३०३॥
समग आवाए वि हु, सारीरियमाणसोभयदुहाण । चिन्तिय दुहं अईअं, न हु-मुज्झइ सत्तभावणओ ॥३८९२॥ बालमरणाणि धीरो, परिभाविय अत्तणो अणंताई। मरणे समुट्ठिए वि हु, न मुज्झइ सत्तभावणतो ॥३८९३।। जुज्झपरिभावियप्पा, बहुसो मुज्झइ रणे न जह सुहडो। तह सत्तभावणाए, मुज्झइन मुणी वि उवसग्गे ॥३८९४|| देवेहि भेसिओ वि हु, दिया व राओ व भीमरूवेहि। तो सत्तभावणाए, धम्मधुर' निब्भरो वहइ ॥३८९५।। एगत्तभावणाए, न कामभोगे मणे सरीरे वा। सजइ वेरग्गगतो, फासेइ अणुत्तर धम्म
॥३८९६॥ भगिणीए वि हम्मंतियाए, एगत्तभावणाए जहा। जिणकप्पियो न मृढो, खवगो विन मुज्झइ तहेव ॥३८९७।। तहाहिपुष्फउरे नरवइपुष्फ-केउणो पणइणीए उप्पन्नो । पुष्फवईए जमल-त्तणेण पुत्तो य धूया य ॥३८९८॥ उचियसमय मि नाम, विहिय पुत्तस्स पुष्फचूलो त्ति । धूयाए पुष्फचूल त्ति, दो वि पत्ताई तारुणं ॥३८९९॥ अच्चतपरोप्परनिबिड-पणयमज्वलोइऊण तेसि च। रन्ना वियोगवजण-कएण अणुरूवपत्थावे ॥३९००॥ परिणाविऊण पडिरूव-पुरिसहत्थेण पुष्फचूला उ। धरिया नियभवणे च्चिय, पइणा सह सा गमइ कालं ॥३९०१॥ भुजेइ पुकचूलो य, रजलच्छि जहिच्छमच्छिन्न । अविरहिय भइणीए, परमप्पणयम्मि वन्तो ॥३९०२॥
एगम्मि य पत्थावे, स महप्पा जायपरमसंवेगो। पवइओ तन्नेहेण, पुष्फचूला वि पव्वइया ॥३९०३।। | सो अहिगयसुत्तऽत्यो, जिणकप्पपवजणट्ठया धीरो। एगत्तभावणाए, परिकम्मइ बाढमप्पाणं ॥३९०४॥
॥३०॥