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________________ संवेगरंगसाला III ग्लानविषये शकुनद्वारं उपश्रुतिद्वारं ॥२४॥ इय संजाऽवत्थकए, सउणसरूवं पयासियं किंपि । संपइ गिलाणविसयं पि, किपि साहेमि निसुणेह ॥३०८०॥ जइ पिटु'ऽतं चट्टइ, सुणहो बलिऊण दाहिणदिसाए । तो मरइ वाहिधत्थो एगदिणऽभंतरे मुणह ॥३०८१॥ जइ लिहइ उरं तो दोन्नि, वासरे चट्टियंमि नंगूले । दियहाई तिनि जीवइ, णिवेइयं साणसउणेणं ॥३०८२॥ जइ सव्वंगं संकोचिऊण, सोवइ निमित्तकालंमि । तो जाणह वाहिल्लो, गयजीओ तकखणे जातो ॥३०८३॥ धुणिऊण कमजुयलं, अंग वलिऊण धुणइ जइ सुणओ । ता मरइ रोगगहिओ, इंदो वि न रक्खि तरइ ॥३०८४।। वाइयवयणो लाला-मुयंतओ झंपिऊण नयणजुयं । संकोचिऊण अंग, सोवंतो जमपुरि नेइ ॥३०८५।। वायसपक्खिसमूहो, आउरगेहस्स उवरि जइ मिलिओ । संझासु तीसु दीसइ, तो जाण विणासए जीयं ॥३०८६॥ जस्स सयणीयगेहे, महाणसे वा ठविन्ति किर कागा। चम्मं रज्जु वालं, हडं वा सो वि लहु मरिही ॥३०८७।। [सउणदारं] अह एत्तो कित्तिजइ, अव्यभिचरियं उवस्सुइदारं । तत्थ पसत्थम्मि दिणे, जाए जणसुयणसमयम्मि ॥३०८८।। सूरी परंपराऽऽगय-गणहरगणमणऽभिरामणीएण । मंतेणं कमजुयं, अभिमंतित्ता पयत्तेणं ॥३०९०॥ पंचनमोकारेण वि, अहवा कयदेवयागुरुपणामो । गंधक्खयजुयहत्थो, सियवत्थकउत्तरासंगो ॥३०९१॥ आउपरिमाणकए, कयपणिहाणो अणऽन्नचित्तो य । परिपिहियकन्नकुहरो, विणिकखमित्ता सठाणातो ॥३०९२।। उत्तरईसाणपसत्थ-दिसिमुहं अह कमेण गंतूण । चंडालवेससिप्पिय-चच्चरतियवलणदेसेसु ॥३०९३॥ ॥२४॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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