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________________ संवेग रंगसाला धर्माराधनविषये शुभमनोरथाः। ॥१९७।। किंचउवभोगोवायपरो, पसमेउ मणइ विसयतण्हं जो । नियछायऽक्कमणकए, पुरोऽवरण्हे पहावइ सो ॥२५१३॥ तहा सुट्ठ वि भुत्ता भोगा, सुट्ठ वि रमियं पिएहिं दारेहि। सुठु वि पियं सरीरं, हा जिय! कइया वि मोत्तव्वं ॥ ॥२५१४॥ . सुचिरं वसि सह बंधवेहि, रमिऊण इट्ठमित्तेहिं । सुचिरं पि सरीरं लालि-ऊण छड्डेवि गंतव्वं ॥२५१५।। इट्ठजणो धणधन्न', भवणं विसया य मणहरणचोरा । एगपए मोत्तव्वा, तहा वि कि गैयनिमीला मे ॥२५१६॥ अरिहं देवो गुरुणो य, साहुणो जिणमयम्मि पडिवत्ती । धम्मियसंसग्गी निम्म-लोय बोहो भवविरागो ॥२५१७॥ एमाइ मए सम्मं, पत्तो परलोयसाहगो वि विही । भवसयपरंपरासु वि, दुल्लंभो मंदपुन्नाणं ॥२५१८॥ अह पत्ते तम्मि महं, महंतपुन्नेहिं संपर्य धम्मो । आराहे जुत्तो, विसेसओ अत्तहियहेर्ड ॥२५१९॥ तं च न तह काउमणो वि, विविहगिहकिच्चनिच्चपडिबद्घो। पुत्तकलत्ताऽऽसतो, तरामि काउंसुनिविग्धं ॥२५२०॥ ता जाव अज वि जरा, दूरे वाहीओ नेव बाहिति । जाव पबलं बलं पि हु, इंदियवग्गो समग्गो य ॥२५२१॥ जावष्णुरागी लोगो, जाव न चवलत्तणं भयइ लच्छी । जाव न इटुविओगो, जाव वियंभेइ न कयंतो ॥२५२२॥ ताव परिवारदुत्थत्त-भाविजिणधम्मखिसरक्खडा । निप्पच्चवायनिरवज-कजसंसाहणट्ठा य ॥२५२३॥ १सनातन ॥१९७॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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