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________________ संवेगरंगसाला वसतिस्वरूपं तदातुः गुणाः ॥१७६।। जइ तूररवपुरस्सर-मऽणेगजणसुगुरुसंघपच्चखं । चईय गिहं च करेमि, भन्ते ! सामाइयं इहि ॥२२४१॥ सव्वं पि हु सावज्ज', जोगं पञ्चक्खिमो उ जाजीवं । तिविहं तिविहेणं ति, महापइन्ना कया एसा ॥२२४२॥ ता कह सव्वंगेहि, छज्जीवनिकायरक्खणेकपरं । सकयपइन्न मोत्तुं, कुणंति मुणिणो गिहाऽऽइ सयं ॥२२४३॥ तम्हा अन्नकए च्चिय, पारद्धं निट्ठियं च अन्नकए । मणवहकाएहि सयं, अकयमकारियमऽह परेहिं ॥२२४४॥ अणणुमयं च अओ चिय, मूलुत्तरगुणजुयं पमाणिल्लं । थीपसुपंडगदुस्सील-वज्जमुज्झियतदाऽऽसन्न.....॥२२४५।। सज्झायकालउच्चार-पासवणभूमिसंजुयं गुत्तं । जइजोग्गं निरवज्ज, सेज्ज देजा जईग गिही ॥२२४६।। दव्वं खेतं कालं, भावं च पडुच्च जइ तहारूवा । नो संपज्जइ तहवि हु, चिन्तिय सारेतरविभागं ॥२२४७॥ सुहुमप्पदोसजुत्तं, गुरुबहुगुणसंगयं सया वसहिं । देज्ज जईणं न ज ते, तीए विणा संजमायाऽलं... ॥२२४८॥ दुत्तरमऽवि भवजलहिं, सेज्जाए तरइ जेग तदाया । सेज्जायरो ति वुत्तो, एत्तो चिय समयकेऊहिं ॥२२४९।। तत्थ ट्ठिया य जइणो, अन्नेहितो वि वत्थपत्ताऽऽई । जं पावंति तयं पि हु, दिन्न' परमत्यो तेण ॥२२५०॥ जइ वि न कहिं पि हु सयं, संपन्न पुव्ववन्नियं ताणं । तह वि हु वसहीदाया, जातो तम्मूलहेउ त्ति ॥२२५१।। जं मूलकारणं सो, अह उत्तरकारणाई इयरे उ । सइ मूलंगे पायं, विसयो किर उत्तरं गाणं ॥२२५२।। बलिए मूलजुयम्मि, जहा तरू लहइ परमवित्थारं । तह वसहिमूलबलिओ, पावइ पसरं जइजणो वि ॥२२५३।। किंच ॥१७६॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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