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________________ संवेगरंगसाला अङ्गारमर्दक दृष्टान्तः। ॥११८॥ इय पुन्ना वि हु वंछिय- सोग्गतिफलसाहिगा गहणसिक्खा । आसेवणसिक्खाए, रहिया नो जायइ कहं पि ॥१४८६॥ आसेवणसिक्खा वि हु, असहाय चिय गुणाय नो भणिया । अंगारमद्दगस्स व, सम्म सन्नाणसुन्नस्स ॥१४८७॥ तथाहिअत्थि पुरं गजणयं, सुसाहुगणपरिवुडो विजयसेणो । सूरी सद्धम्मपरो, तत्थ ठिओ मासकप्पेण ॥१४८८॥ पच्छिमरयणीसमए, सीसेहिं तस्स सुमिगओ दिट्ठो । पंचसयकलहकलिओ, कोलो वसहीए किल पत्तो ॥१४८९॥ विम्हियमणेहिं तेहिं, सुमिणऽत्थं पुछिया य तो सूरी । तेहिं कहियं एही, गुरुकोलो साहुगयसहिओ ॥१४९०।। अह उग्गयम्मि सूरे, सोमग्गहसंगओ रविसुओ व्व । कप्पतरुसंडमंडल-सहिओ एरंडरुक्खो व्व ॥१४९१॥ पंचसयसुमुणिजुत्तो, आयरिओ रुद्ददेवनामोत्ति । पत्तो साहुहिं कया, उचिया से सम्बपडिवत्ती ॥१४९२॥ अह वत्थव्वा मुणिणो, परिक्खणज्डा निसिम्मि कोलस्स । गुरुवयणेणं खिविउं, काइयभूमिम्मि अंगारे ॥१४९३॥ पच्छन्नपएसगया, पलोयमाणा य जाव चिटुंति । पाहुणगसाहुणो ताव, पट्ठिया काइयमहीए ॥१४९४॥ अंगारक्कमणुप्पन्न-किसिकिसाऽऽरावसवणओ चेव । मिच्छामि दुक्कडं हा, किमेयमेवं ति जंपन्ता ॥१४९५॥ अंगारकिसकिसोरख-ठाणम्मि विरइऊण चिधाई । गोसे पहिस्सामो, होज किमेयं ति बुद्धीए ॥१४९६॥ विणियत्तंति जवेणं, तेसिं गुरू पुण तदारवे तुट्ठो । एए वि जिणेहि अहो, जीवा कहिय त्ति भासंतो ॥१४९७॥ २ खरययरं अंगारे, मदंतो काइयामहिम्म गओ । एसो य वइयरो तेहि, संसिओ निययमूरिस्स ॥१४९८॥ १ सद्गति० २ खरकतरम् = गाढम् इत्यर्थः ॥११८॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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