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________________ संवेगरंगसाला ॥११३॥ इय ताव गहणसिक्रूखा, निदंसिया इन्हि पुव्वउद्दिट्ठा । किरियाकलावरूवा बुच्चड आसेवणासिकूखा या विणा वणमालईए, कुसुमोग्गमो व्व विहवाए । रूवाऽऽइगुणगणो इव, होइ विहला गहणसिक्खा किंच ॥१४२४॥ ॥ १४२५ ॥ ॥ १४२६ ॥ ॥१४२७॥ जोगतिगेणासेवण - सिक्खं चिय सम्ममायरन्तस्स । गहणस्सिक्खा जायइ, न अन्नहा जेण पयडमिणं गुरुचरणपसायणओ, असेसवक्खेववअणुञ्जमओ । सुस्सूसणपडिपुच्छण - पमुहगुणपरजणेणं च बहुबहुतरबहुतमबोह - संभवा परमपगरिसमुबेइ । गहणसिक्खा न उ अन्न - हा वि सिरिमालिणो व्व धुवं ॥ १४२८ ॥ एवं जाया व अभिक्खणं पि, मणवयणकायकिरियाहिं । आसेविजन्त च्चिय, वडूढइ एसा थिरा य भवे ।। १४२९ ।। ता हो अन्ता विहु, हुंतीए अहुतियाए हुन्ता वि । न हु होइ जप्पभावा, भव्वाण इमा गहणसिक्खा || १४३०|| ती च्चिय एकाए, नमोऽत्थु सव्वसुहसिद्धिभूमीए । आसेवणसिक्खाए, भवतरुपलयानलसमाए ॥१४३१॥ एत्थ य किरियानय - मयमेयं जं सव्वहा वि कजत्थी । किरिया च्चिय सम्मं, जएज निच्च चिय तहाहि ॥ १४३२ || ओवादेयत्थे, विन्नाए उभयलोगफलसिद्धि । इच्छन्तेण महमया, जयव्वं चैव जत्तेण ॥१४३३॥ जम्हा पर्वित्तिलक्खण - पयत्तविरहे न नाणिणो वि इहं । अहिलसियवत्थुसिद्धी, दीसह अन्नेहि वि जमुत्तं ॥ १४३४ ॥ किरि चय फलजणणी, नो नाणं संजमत्थविसयाण । विन्नाया वि सुनिउणं, न नाणमेत्ता सुही होइ || १४३५|| आसेवनाशिक्षा स्वरूपम् । ॥११३॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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