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________________ संवेगरंगसाला || साधुबहुमान प्रतिज्ञा, स्वगलोकगमनं क्रमेण मोक्षप्राप्तिश्च ॥६ ॥ तो पंचसाहुसयविसय-चन्दणप्पभिइविणयकिच्चपरो । गहिओ अमिग्गहो तेण, घोरसंसारभीएण ॥७८५।। परिवालइ य जहुत्तं, जत्थ य दिवसे न होंति पंचसया। साहणं पडिपुन्ना, तत्थ न सो भोयणं कुणइ ॥७८६।। इय छम्मासे पालिय, अभिग्गहं तयणु संलिहियदेहो । मरिऊण बंभलोए, देवत्तेण समुष्पन्नो ॥७८७॥ ओहिबलेणं तत्थ वि, मुणिऊणं पुव्वकालवुत्ततं । सविसेस जयगुरुसाहूण, वन्दणाइम्मि वट्टन्तो ॥७८८॥ अइवाहिय देवत्तं, तओ चविता पुरीए चम्पाए । नरनाहचन्दरायस्स, पुत्तभावेण उप्पन्नो ॥७८९॥ पुन्वभवसाहुदढपकूख-वायभावेण तत्थवि स धीमं । मुणिणो दटुं जाई, सरेइ तोसं च उव्वहइ ॥७९०॥ एत्तो च्चिय पियसाहु त्ति, नामधेयं पिऊहिं से विहियं । तरुणत्तणमणुपत्तो, पडिवाइ सो य पन्बज ॥७९१॥ तत्थवि य समत्थतवस्सि-लोयविस्सामणाइकरणपरो । विविहाभिग्गहगहणेक-बद्धलक्खोऽपमाई य ७९२॥ संलेहणं करित्ता, पजन्ते सुक्कपमुहकप्पेसु । तियससुहमणुभवित्ता, जहकमं जाव सव्वट्ठे ॥७९३॥ सव्वुक्किट्ठ' सोक्खं, अणुभुञ्जिय एत्थ लद्धमणुयत्तो । कयपव्वजो निरवज-विहियआराहणविहाणो ॥७९४॥ निम्महियमोहजोहो, मुसुमरियभवनिमित्तकम्मंसो । असुरसुरविहियमहिमो, हिमगोरं सिवपुरं पत्तो ॥७९५॥ इय खुड्डगनाएण, पव्वजं उवगया वि दक्खा वि । आराहणाविहाणं, काउं पारिति न पमत्ता ॥७९६॥ जे पुण जह एसो चिय, तह पइभवविहियपवरसामन्ना । आराहणजयलच्छि', ते लीलाए चिय लहन्ति ॥७९७।। ॥६ ॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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