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श्रीजिनदत्तसूरिपुस्तकोद्धारफंडग्रंथाङ्क २५ । जीवविचारप्रकरणम् ।
प्रणम्य श्रीवर्द्धमानं, सर्वज्ञं सर्वदर्शिनं, जीवविचारबोधार्थ, क्रियते लोकभाषया १ व्याख्या इतिशेषः। भुवणपईवं वीरं, नमिऊण भणामि अबुहबोहत्थं । जीवसरूवं किंचिवि, जह भणियं पुवसूरीहिं ॥१॥
(भुवणपईवं ) तीनभुवनरूप संसारमें दीपकके समान, (वीर) भगवान् महावीरको, (नमिऊण) नमस्कार करके, (अबुहबोहत्थं) अज्ञ लोगोंको ज्ञान करानेके लिये, (पुबसूरीहिं) पुराने आचार्योंने, (जह भणियं) जैसा कहा है वैसा,! (जीवसरूवं ) जीवका स्वरूप, (किंचिवि) संक्षेपसे (भणामि) मैं कहता हूँ ॥१॥
प्रश्न-जीवका स्वरूप जाननेसे क्या लाभ है? उत्तर-उनको हम अपनी आत्माके समान समझ कर उनसे बर्ताव करें-उनको तकलीफ न पहुँचावें.
१-शास्त्रका फरमान है कि-"पडम माणं तो दया, एवं चिटई सव्वसंजए । अनाणी किंकाही? किंवा नाहीय सेय पावगं?" पहले ज्ञान होगा तब ही अहिंसाधर्मका पालन हो सका है।