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दंडकप्रकरणम्
॥ ३५ ॥
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( थावरसुरनेरइया ) पांच स्थावर तेरे देवता और एक नारक ऐसे सब मिलके उगणीसदंडकोके विषे (असंघयणाय ) संघयण नही है ( विगलछेवठ्ठा) और तीन विकलेंद्रिको एक छेवठा संघयण है ( संघयणछक्कंगष्भय ) छे संघयण गर्भजको (नरतिरिएसुविमुणेयबं) मनुष्य और तियंचको जान लेना ॥ इति चौविस दंडके संघयण द्वार ३ ॥ ११ ॥ सर्व्वसिंचउदहवासन्ना, सबेसुरायचउरंसा । नरतिरियछसंठाणा हुंडाविगलिंदिनेरइया ॥ १२ ॥ (सबेसिंचउदहवा) सब दंडकोके विषे चार तथा दश ( सन्ना) संज्ञा होती है ॥ इति चोवीश दंडक के चतुर्थ संज्ञाद्वार ( सबेसुरायचउरंसा ) सब देवोका समचोरस संस्थान है (नरतिरियछसंठाणा ) मनुष्य और तिर्यचको छही संस्थान होते है ( हुंडाविगलिंदिनेरईया ) विकलेंद्रि और नारकीको एक हुंडक ही संस्थान होता है ॥ १२ ॥ नाणाविधयसूई बुब्बुहवणवाउतेउअपकाया । पुढवीमसूरचंदा-कारासंठाणओभणिया
॥ १३ ॥
( नाणाविह) नाना प्रकारका ( ध्रय) ध्वजाके आकारे संस्थान ( सूई ) सुईके आकारे (बुब्बुह ) जलके बुद्बुदाके आकारे ( वणवाउते अपकाया ) अनुक्रमसें वनस्पतिकाय वाउकाय तेउकाय और अपकायका है ( पुढवीमसूरचंदाकारा) और पृथ्वीकायका मसूरकीदाल अथवा चन्द्रके आकारे ( संठाणओ भणिया ) इस प्रकारसें चोवीश दंडकके पंचम संस्थानद्वार कहा ॥ १३ ॥
| सवेविचउकसाया लेसछकंगष्भतिरियमणुएसु । नारयतेऊवाऊ विगलावेमाणियतिलेसा ॥ १४ ॥
अर्थ
सहितम्
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