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________________ GANGACASSACRORE सात अपर्याप्ता और दुसरा सात पर्याप्ता (कमेणचउदस) अनुक्रमसें ऐसे सब मिलकर चौदह (जिय) जीवोंका (ठाणा) स्थान याने भेद है॥४॥ नाणंचदंसणंचेव चरित्तंचतवोतहा। वीरियंउवओगोय एयंजीवस्सलक्खणं ॥ ५॥ (नाणं) ज्ञान आठ प्रकारे पाँच ज्ञान सम्यक्त्व आसरे और तीन अज्ञान मिथ्यात्व आसरे (च) और (दसणं) हैदर्शनका चार भेद (चेव) निश्चे (चरित्तं) चारीत्रका सात भेद सामायक आदि निश्चय व्यवहार (च) फिर (तवो) तपके बारह भेद (तहा) तेसेही (वीरियं) वीर्य दो प्रकारके (उवओगो) उपयोगके बारह भेद (य) और (एयं) ये (जीवस्स) जीवका (लख्खणं) लक्षण है ॥५॥ है आहारसरीरइंदिय पज्जत्तीआणपाणभासमणे । चउपंचपंचछप्पिय इगविगलासन्निसन्नीणं ॥६॥ (आहार) आहारपर्याप्ति १ (सरीर) शरीरपर्याप्ति २ (इंदिय) इंद्रियपर्याप्ति ३ (पजत्ती ) ऐसे तीन पर्याप्ति (आणपाण) स्वासोस्वास ४ (भास) भाषा ५ (मणे) मनपर्याप्ति ६ (चउ) आहारादि चार (पंच) मन छोडकर पाँच (छप्पिय ) मन सहित संपूर्ण छे पर्याप्ति (एग) एक इंद्रीको चार (विगला) बिगलेंद्रीको मन छोडकर पाँच (असन्नि) असंनी पंचेन्द्रिको मन छोडके पांच (सन्नीणं) संनी पंचेन्द्रिको छे है॥ ६ ॥ अब जो इस अपनी अपनी पर्याप्ति पूरी करके मरे सो जीव पर्याप्ता और बिना पुरी कीए मरे सो जीव अपर्याप्ता कहलाता है। OMGADACCECASSAMROHAR
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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