SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवविचार भाषाटीकासहित. ॥१७॥ SASAKARAKASG (असन्नि-सन्नि-पंचिंदिएसु) असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंको (कमेण) क्रमसे (नव दस) नव और दस प्राण (बोधवा) जाणना. (तेहिं सह) उनके साथ (विप्पओगो) विप्रयोग-वियोग, (जीवाणं) जीवोंका (मरणं) मरण (भण्णए) कहलाता है ॥ ४३ ॥ भावार्थ-असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंको त्वचा, जीभ, नाक, आँख, कान, श्वासोच्छ्रास, आयु, कायबल और वचनबल ये नव प्राण होते हैं और संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंको पूर्वोक्त नव और मनोबल, ये दस प्राण होते हैं. जिनको जितने प्राण कहे गये हैं, उन प्राणोंके साथ वियोग होना ही उन जीवोंका मरण कहलाता है. देव, नारक, गर्भज तिर्यञ्च तथा गर्भज मनुष्य, ये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं. सम्मूच्छिम तिर्यञ्च और सम्मूछिम मनुष्य, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं. सम्मूछिम मनुष्योंको मनोबल और वाक्बल नहीं है, इसलिये उनके आठ प्राण, और, श्वासोच्छवास पर्याप्ति पूर्ण न होनेके कारण साढा सात प्राण होते हैं. एवं अणोरपारे, संसारे सायरंमि भीमंमि । पत्तो अणंतखुत्तो, जीवहिं अपत्तधम्महि ॥ ४४॥ (अपत्तधम्मेहिं ) नहीं पाया है धर्म जिन्होंने ऐसे (जीवहिं ) जीवोंने (अणोरपारे) आर-पार-रहित-आदिअन्त-रहित (भीमंमि) भयङ्कर (संसारे सायरंमि) संसाररूप समुद्रमें (एवं) इस प्रकार-प्राण-वियोग-रूप मरण है।(अणंतखुत्तो) अनन्त वार (पत्तो) प्राप्त किया ॥४४॥ ॥ १७॥
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy