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________________ नयचक्रसार मूळ ॥१४॥ एकपर्यायप्राग्भावेन तिरोभाविपर्यायग्राहकः शब्दनयः, कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपा- || बालाव बोधसहित द्यमानः शब्दः, जलाहरणादिक्रियासमर्थ एव घटः, न मृत्पिंडादौ; तत्त्वार्थवृत्तौ शब्दवशादर्थप्रतिपत्तिः तत्कार्यधर्मे वर्तमानवस्तु तथा मन्वानः शब्दनयः। शब्दानुरूपं अर्थपरिणतं द्रव्यमिच्छति त्रिकालत्रिलिंगत्रिवचनप्रत्ययप्रकृतिभिः समन्वितमर्थमिच्छति तदभेदे तस्य तमेव समर्थमाणस्तदाभासः। अर्थ-हवे शब्दनय कहे छे जे वस्तुना एक पर्यायने प्रगट देखवे वीजा शब्दवाचकपर्यायने तिरोभावें अणप्रकटवें पण ते पर्यायने ग्रहे अथवा काल त्रण वचन त्रण लिंग त्रण तेने भेदें शब्दनो भेद पडे ते भेदेंज अर्थने कहे अथवा जलाहरणादि समर्थने घट कहे तथा कुंभादिक चिन्ह पर्याय जेटला छे तेटलानो अर्थ वर्ततो न देखाय तो पण तेने नाम कही बोलावे एम जेमां कार्यनो सामर्थ्यवंतपणो छे तेने ग्रहे पण माटीना पिंडने घट कहे नही ते शब्दनय कहिये अने जे संग्रह तथा नैगमनयवालो कहे ते सत्ता योग्यता अंशना ग्राहक छे तथा तत्त्वार्थटीका मध्ये शब्दवशथी अर्थ पडिवर्जवो ते शब्द बोलावतो होय जे अर्थ ते वस्तुमा धर्मपणे प्रगट देखाय तेनेज ते वस्तु माने ए नयने शब्दानुयायी अर्थे परिणति जे वस्तु कहे छे काललिंगादिभेदें अर्थनो भेद छे ते भेद तेम ते धर्मे वस्तु माने ते शब्दनय कहिये अने ते अर्थ विना ते वस्तुमध्ये तेपणो वर्ततो देखातो नथी तेने ते वस्तुपणे समर्थन करे ते शब्दाभास कहिजे एटले शब्दनय कह्यो. ॥१४ ॥ हे छे कालालगाते वस्तुमां धर्मपणे प्रशना ग्राहक छे तथा तापडने घर
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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