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नयचक्रसार मूळ
बालावबोधसहित
॥१२३॥
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एम धर्मास्तिकायादिकना सर्वे गुण ते त्रण परिणतियें परिणामी छे, ते माटे पंचास्तिकाय ते अर्थक्रिया करे छे, ते क्रियावंतपणो जाणवो. सर्वपर्यायनो उपयोगीपणो ए पण जीवस्वभाव छे तथा प्रदेशाष्टकनी निश्चलता ए पण जीवनो स्वभाव छे. तिहां धर्माधर्म अने आकाश ए त्रण अस्तिकायना प्रदेश अनादि अनंतकाल अवस्थितपणे छे. पुद्गलने चलणपणो सदा सर्वदा छे. पुद्गलपरमाणु तथा पुद्गलस्कंध ते संख्यातो काल अथवा असंख्यातो काल एकक्षेत्रे रहे पण पछे अवश्य चल थाय. तथा जीवद्रव्यने सकर्मा संसारीपणे क्षेत्रथी क्षेत्रांतर गमन भवथी भवांतर गमनरूप चलता छे, ते जीवने सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रने प्रगटवे सर्व परभावभोगीपणो निवारवे आत्मस्वरूप निरधारण स्वरूप भासन स्वरूप परिणमने करवे, स्वरूप एकत्वे, स्वधर्मकर्ता स्वधर्मभोक्तापणे, सकलपरभाव तजवे, निरावरण, निःसंग, निरामय, निर्बुद्व, निष्कलंक, निर्मल, स्वीय अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, अरूपी, अव्याबाध, परमानं. दमयी, सिद्धात्मा, सिद्धक्षेत्रे रह्या ते सादिअनंतकाल स्थिर छे. सकलप्रदेश स्थिर छे, अने संसारी जीव तेना आठ प्रदेश सदा सर्वदा स्थिर छे. ते आठप्रदेश निरावरणे तथा आचारांगनी टीका शैलंगाचार्यकृत तेना लोकविजयाध्ययनने प्रथमोद्देशके तदनेन पंचदशविधेनापि योगेनात्मा अष्टौ प्रदेशान् विहाय तप्तभाजनोदकवदुद्वर्तमानैः सर्वैरैवात्मप्रदेशैरात्मप्रदेशावष्टब्धाकाशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यद् बध्नाति तत् प्रयोगकर्मेत्युच्यते.....
एटले आठ प्रदेशे कर्म लागता नथी. इहां कोइ पुछे जे आठ प्रदेश निरावरण छे तो लोकालोक केम जाणता नथी ? तिहां उत्तर जे आत्म द्रव्यनी जे गुणप्रवृत्ति ते सर्वप्रदेशमिले प्रवत्र्ते तो तेमां ए आठ प्रदेश अल्प छे तेथी आठ प्रदेशमा
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गगनजाणतानचा
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