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________________ आगमसार ॥ ७७ ॥ ज्ञान चारित्र नही पले तोपण श्रेणिक राजानी पेरें सद्दहणा शुद्ध राखजो जो समकित शुद्ध छे तो मोक्ष नजीक छे समकित विना ज्ञान ध्यान क्रिया सर्व निःफल छे एम आगममां कह्यो छे. जंसक्केइ तं किरइ, अहवा न सक्केइ तहय सदहइ । सद्दहमाणो जीवो, पावइ अवरामरं ठाणं ॥ १ ॥ अर्थ - रे जीव ! तुं करी शके तो कर अने जो न करीशके तोपण जेवो वीतरागें धर्म कह्यो ते रीते सद्दहजे सहहणा शुद्ध राखनार जीव अजरामर स्थानक ते मोक्ष पदवी पामे. समकित मार्ग कहे छे. १ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य ४ पाप ५ आश्रव ६ संवर ७ निर्जरा ८ बंध ९ मोक्षए नव तत्व छे तेमां मोक्षनुं कारण जीव छे अने संवर तथा निर्जरा ए वे गुण छे एटले जीव संवर निर्जरा मोक्ष ए चार उपादेय छे अने बीजा पांच हेय छे एहवो परिणाम तेने समकित ज्ञान कहियें ते समकित ज्ञानभलोज थाय तिहां अनुयोगद्वारमां कह्यो छे. नायम्मि गिन्हियचे, अगिन्हियवे अ इत्थ अत्यंमि । जइवमेवइयजो, सो उवएसो नओनाम ॥ १ ॥ अर्थ - ज्ञानथी छ द्रव्य जाणीने लेवा योग्य होय ते ले अने छांडवा योग्य छांडे एवो जे उपदेश ते नय उपदेश | जाणवो हवे समकितनी दशरुचि कहे छे. निसर्गरुचि ते निश्चय नय करी जीवादि नवतत्व जाणे आश्रव त्यागे संवर आदरे वीतरागना कह्या भाव जे छ द्रव्य प्रकरणम् ॥ ७७ ॥
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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