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________________ प्रकरणम् भागमसार ॥७४॥ SOCCHUSUSISUSTUSASUS व्यवहार पणे माने सईहे ते आज्ञा प्रमाणे यथार्थ उपयोग भासन थयो तेने हर्षे करी ते उपयोग मध्ये निरधार भासन रमण अनुभवता एकता तन्मय पणो ते आज्ञाविचयधर्मध्यान कहिये. २ अपायविचयधर्मध्यान ते जीवमा अशुद्धपणे कर्मना योगथी संसारी अवस्थामा अनेक अपाय केहतां दूषण छे ते अज्ञान राग द्वेष कषाय आश्रव ए मारा नथी हुँ एथकी न्यारो छु हुं अनंतज्ञान दर्शन चारित्र वीर्यमयी शुद्ध बुद्ध अविनाशी छु अज, अनादि, अनंत, अक्षय, अक्षर, अनक्षर, अचल, अकल, अमल, अगम्य, अनमी, अरूपी, अकPा , अबंधक, अनुदय, अनुदीरक, अयोगी, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अवेदी, अछेदी, अखेदी, अकषायी, असखाइ, अलेशी, अशरीरी, अणाहारी, अव्याबाध, अनवगाही, अगुरुलघुपरिणामी, अतेंद्री, अप्राणी, अयोनी, असंसारी, अमर, अपर, अपरंपर, अव्यापी, अनाश्रित, अकंप, अविरुद्ध, अनाश्रव, अलख, अशोकी, असंगी, अनारक, लोका-18 लोक ज्ञायक एवो शुद्ध चिदानंद मारो जीव छे एहवो एकाग्रतारूप ध्यानते अपायविचयधर्मध्यान जाणवो. । ३ विपाकविचयधर्मध्यान कहे छे. जे एहवो जीव छे तो पण कर्म वशे दुःखी छे ते कर्मनो विपाक चिंतवे जे जीवनी ज्ञानगुण ते ज्ञानावरणी कम दाब्यो छे अने दर्शनावरणी कर्मे दर्शनगुण दाब्यो छे एम आठ कर्मे जीवना आठगुण दाब्या छे एटले आ संसारमा भमतां थकां जीवने जे सुखदुःख छे ते सर्व कर्मनां कीधां छे माटे सुख उपने राचवू नही अने दुःख उपने दिलगीर थq नही कर्म स्वरूपनी प्रकृति स्थिति रस अने प्रदेशनो बंध उदय उदीरणा तथा सत्ता [चिंतववानुं एकाग्रता परिणाम ते विपाकविचयधर्मध्यान. ॥ ७४॥
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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