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धर्मविधि ॥१२८॥
मि दिणे तीसे, सह पर पुरिसेण अभिरमंतीए । पत्तो गिहे अकम्हा, महेसरो दारदेसाओ ॥ ६७६ ॥ तं दद्भुमुववई सो, भज्जावि हु दो भिमिरनयणाई । विस्सत्यकुंतलाई, परिहियविवरीयवत्थाई ॥ ६७७ ॥ सुरयावास भएहि, ताई कंपंतसयलगत्ताईं । तक्खणचडियजराणि व, पक्खलियगईणि जायाई ॥ ६७८ ॥ अह सो घरइ उत्रवई, केसचए लुद्धउब भल्लूगं । ताडइ य चवेडा, मंतिय इव भूयसंगहियं ॥ ६७९ ॥ खरचरणपहारेहिं, तं मद्दइ मट्टियं कुलालु व्व । तह निहणइ जट्ठीए, कुक्कुरमिव नियघरपवि ॥ ६८० ॥ किं बहुणा सत्थाहो, करेइ तं अद्धमारियं तत्थ । जारं पर जह कोवो, न तद्दा चोरंमि माणीण ।। ६८१ तत्तो महेसरेणं, मुत्तेण कथंतमुत्तिणा तेण । सो तह मारिज्जैतो, नीहरिआ अग्गओ कहवि ॥ ६८२ ॥ गंतूण थोवभूमिं च, निवडिओ गंगिला ववई सो । कंठपएसप्पत्तप्पाणो एयं विचिते ॥ ६८३ ॥ सुक्खं सरसवमित्तं, दुक्खं पुणगिरिवराउ अन्भहियं । तहवि हु न कुणइ लोओ, परदारपरंमुहं दिट्टि । ६८४|| तेण हओ नियमहिमा, दिन्नो मसिकुच्चओ नियकुलम्मि | हारवियं सुहडतं, जेणभिरमियं परकलत्तं ॥ ६८५ ॥ धी गरिहियकम्ममिमं मए कर्यं नृगमच्चुकामेण । ता कामियं व तित्थं, अहुणा मरणं मह हवेउ ।। ६८६ ॥ एवंसो चिंतंतो, मरिऊण सयंमि चैव बीयम्मि । तक्खणडवभुंजियगं - गिलाइ उयरे समुत्पन्नो ॥ ६८७ ॥ समए य सुओ जाओ, भह सत्याहो तमन्नजायपि । नियतणु मन्नंतो, लालेई बाइलारु व्व ॥ ६८८ || तीसेय गिलाए, पसूयपुत्ताइ सत्थवाहो सो । तं पुन्वदुसीलत्तं, वीसारइ पुत्तनेहेण ।। ६८९ ॥ तस्सुववइजीवस्स य, महेसरो पत्तपुत्तमुत्तिस्स । लज्जेइ न कुव्र्व्वतो, घाईकम्पाइ अणवरयं । ६९० ॥ तं बालं बढतं, आगरिसंत च कुच्चकेसाई । सो तअत्थं हिययग्गठियं सया धरइ ॥ ६९१ | अन्न दिणे सत्थाहो, संवच्छरियामे निययजणगस्स । तं पिजीवं महिसं,
प्रकरणम्
९॥ १२८ ॥