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श्रीमोध-त्यु निथुति ભાગ-૨
॥८१८॥
वृत्ति : इदानीं विशुद्धिद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह - ओ.नि. : एत्तो सल्लुद्धरणं वुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं ।
जं नाऊण सुविहिया करेंति दुक्खक्खयं धीरा ॥७९४॥ दुविहा य होइ सोहि दव्वसोही य भावसोही य । दव्वंमि वत्थमाई भावे मूलुत्तरगुणेसु ॥७९५॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायव्वा । परसक्खिया विसोही सुदृवि ववहारकुसलेणं ॥७९६॥ जह सुकुसलोऽवि विज्जो अन्नस्स कहेइ अप्पणो वाही । सोऊण तस्स विज्जस्स सोवि परिकम्ममारभइ ॥७९७॥ एवं जाणंतेणवि पायच्छित्तविहिमप्पणो सम्मं । तहवि य पागडतरयं आलोएतव्वयं होइ ॥७९८॥
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