________________
अंबु
गुण
रत्न
नाला
लगा । प्रकट्यो केवल रवि ज्ञानबे ॥ ध० २४ ॥ लोक अलोकरा भाव सकलही । हस्ताम्बल जिम पाशवे । मार्ग बतावे भवि जीवांने । दे उपदेश उल्हाशत्रे ॥ घ० २५ ।। ढाल भणीए चोतीसमी । श्री जंबू गुण गायबे सब परिवार उधार लियो जिमन । जहाज समाझ निरायवे ।। ध० २६ ॥
॥ दोहा ॥ सकल मनोरथ सब हुवा। श्री गुरु देव प्रताप । वीर धनुष धर्म कर ग्रह्मा कहा करे रिपु पाप ॥ १ ॥ इम हिज सर्पिणी काल में चतुर्थ आरे अंत ! जंबूजी चरम केवली थया महा गुण वंत || २ ॥
पृ. ८२
॥ डाल पैंतीसमी ॥ भवियां भक्ति चोखे चित्ते नित जपिये नवकार । एदेशी । परम प्रतापी दंभ उत्थापी सुधम पाट विराज । निज काम सवारया भविजन तारया । जारया कंदर्प राज । बलिहारी उनकी उत्तम मुनी की । नांवलियां निस्तार | समरो भवि नित्ते एकण चित्ते । श्री जंबू अणगार || आं १ ॥ कीरत सब विद्ध । बधइ कला निद्ध । जैसे वृद्ध पावंत ऊगीने ऊगा शिवपुर पूगा। फेर नही आवंत । जिहां सुख अनंतां । का। भगवंता । संसय नही लिगार || स० २ ।। शासन पति सिद्ध केवल लिया । पाछल गौतम स्वामी । द्वादश वर्षे पदवी हर्पे । भोगी अंतर जामी ! निवे वर्षनी आयू वरनी । पोता मुक्त महार ॥ स० ३ ॥ सुधर्म स्वामी केवल पामी शोडश वर्ष परमाण | प्रभु पाट दियावी कर्म निठावी । लीधो पद निर्वाण | सो वर्षानो आयू मानो मुक्त भया भवपार ॥ स० ४ ॥ वरस जु सोला । कंवर किलोला । जंबू
ढाल
३५