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द्वात्रिंशं
श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे श्रीनेमिचन्द्रीया सुखबोधाख्या लघुवृत्तिः ।
प्रमादस्थानाख्यमध्ययनम्।
प्रमादस्य स्थानानि।
॥३५९॥
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य।। मायामुसं वहुइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से ॥ ८२॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाइयंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ ८३ ॥ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो मुहं होज कयाइ किंचि?। तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निश्वत्तए जस्स कए न दुक्खं ॥ ८४॥ एमेव फासम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पउद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥८५॥ फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपराओ। न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥८६॥ मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं समणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ८७॥ भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुनमाहु ॥ ८८ ॥ मणेण जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावडिए गए वा ॥ ८९॥
॥३५९॥